पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८१

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. मनुस्मृति भाषानुवाद "जिस प्रकार मनु जी से पूर्व मैंने पूछा तव यह शास्त्र उन्होंने उपदेश किया । उसी प्रकार अब आप मुझ से सुनिये ।।" (१०२ वा श्लोक इस पुस्तक के सम्पादक का वचन है। मनु , का नहीं। यह श्लोक ही से सष्ट पाया जाता है । १०३ मे इस प्रन्य पर ब्राह्मणों का अधिकार जमाना पक्षपात है । अन्यत्र यह कही नहीं लिखा कि स्मृति पर ब्राह्मणों का ही अधिकार है । जो ग्रन्थ शूह को वेदाध्ययन का निश्व भी लिखते हैं वे भी शुद को स्मृति पढ़ने का निषेध नहीं करते और द्विज मात्र को तो वेदक अधिकार मे भी काई नवीन या प्राचीन ग्रन्थ निषेध नहीं करता फिर यह पक्षपात नहीं तो क्या है । ॥१०४ वे मे इम ग्रन्थ के पढ़ने से पापे का नाश लिखा है और कर्म दोप न लगना कहा है। यह भी अन्य की अत्युक्ति कर प्रशसा है ।। १०५, १०६ मे भी यही बात है।। १०० वें श्लोक मे भी इम न्य के सम्पादक ने इस प्रन्थ का, सूचीपत्र आरम्भ किया, परन्तु १०८ से ११० तक ३ श्लोकों में धमशास्त्र की आबा है और १११ से फिर सूचीपत्र है जो ११८ कमला गया है ।। ११९ मे पुस्तक का सम्पादक कहता है कि मैन मनु से जैसे सुना वैसे मैं आपको सुनाता हूँ। सो सम्पादक का मनु के समकाल होना तो असम्भावित है । हो मनु के धर्मशास्त्र से जो कि पूर्व सूत्ररूप में था इस भद्रपुरुप ने उस मूल से आशय लिया हो और वहीं मनु से सुनना समझा जाय तो दूसरी बात है) ॥१९॥ इति श्रीतुलसीरामन्यामिकते मनुस्मृतिभावानुवादे प्रथमोऽध्याय ||२||