पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८२

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प्रोम ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥ विद्वद्धिः सवितः मद्धिनित्यम पगगिभिः । होनाभ्यनुज्ञाता यो धर्मम्तं निवाधत । १।। कामात्मता न प्रशस्तान बहामन्यामता । काच्याहि बदाधिगमः कमयागच टिक ॥२॥ पद के जानने वाले प्रोसंग गादि से रहिन महामाने निस धर्म का मदन किया और इस्य में जिनका नन्छ मनर जान्न उस धर्म या सुना कान ना कानामा होना और न कंबल निकाम हानाही अशः क्योकि वंट की प्रामि और वदान कानुधान सामना करने के ही याम्य है।ना संकल्पमूलः कामाचे यत्नः संकल्पसंभवाः । तानि यमधर्माश्च मत्र मंकन्यवा- म्मनाः ॥३॥ असामस्य क्रियाकाचिदृश्यनेनेह कहिचिन् । चदि कुरुते किञ्चित्तत्तकामस्य चेष्टितम् ॥४॥ (इन कर्म ने घर मष्ट फल प्राम होगा, इसका संकल्प करने है फिर जब पृरा विश्वास होता है नत्र) संकल्प मे उपकं करने की इन्चा होती है। यचादि मव मंकल ही महान है और वन, नियम, धर्म, ये मब संकल्प हीन होते है (अयान मंकल्प बिना कुछ भी नहीं होता ) ॥ लोक में भी काई क्रिया (भाजन गमन आदि) विना इच्छा कभी देखने में नहीं मानी, इस कारण जो कुछ कर्म पुरुष करता है, वह मम्पूर्ण कामही से करता है ॥१॥ तेषु सम्पवर्तनानी गच्छत्यमरलोकताम् ।