पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८३

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८० मनुस्मृति भाषानुवाद यथा सकल्पिताश्चेह सर्वान्कामान्समश्नुते ॥५॥ वेदेोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥६॥ उन शास्त्रोक्त कर्मों में अले प्रकार आचरण करने वाला अमरलोकता अर्थात् अविनाशी भाव का मान होता है और जोर यहा सङ्कल्प करता है वह २ सम्पूर्ण पदार्ग भी प्राप्त होते हैं ॥५॥ सम्पूर्ण वेद धर्ममूल है और वेट के जानने वालो की स्मृति तथा शील भी धर्मभूले हैं । इसी प्रकार साधुजनों का आचार और अात्मा का सन्तोष भी धर्ममूल है ॥६॥ 'य कश्चिरकस्यचिद्वमा मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयाहि सजा" "जिस वर्णके लिये जो धर्म भनु ने कहा है यह सम्पूर्ण वेहमें कहा है क्योकि वेद सब विद्याओं का भण्डार है अर्थात् सम्पूर्ण वेद को जान कर यह स्मृति बनाई। इससे सब स्मृतियों से इसकी उत्कृष्टता दिखाई है ।।" (इस ७ वे श्लोक में प्रस्थ के सम्पादक ने मनु की प्रशंसा और वेदानुकूलता पुष्ट की है) ॥ ७॥ सर्व तु समवेच्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा । श्रुतिप्रामाण्यता विद्वान्स्वधर्मे निविरोत नै !!eir (प्रन्थकार कहता है कि) विद्वान् को चाहिये कि इस सब धर्मशान को ज्ञान की आख से बंद के प्रमाण से जांचे और अपने धर्म में श्रद्धा करे ।। ८॥ श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः ।