पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीयाध्याय ice इइ कीर्तिमवाप्नोति प्रत्य चानुत्तमं सुखम् ॥६॥ श्रुतिस्तु वेदा विज्ञेया धर्मशास्त्र तु स्मृतिः । ते सर्वार्थप्वमीमांस्ये ताभ्यां धोहि निर्बभौ ॥१०॥ वद और स्मृतियों में कहे धर्म को जो मनुष्य करता है उसकी यहां कीर्ति होती है और परलोक मे अनुत्तम सुख की प्राप्ति होती है ॥२॥ अति खेद है और ( मन्वादिकों का ) धर्मशास्त्र मृति है। ये दोनों सम्पूर्ण अर्थों में निर्विवाद है, क्योंकि इनसे धर्म का प्रकाश हुवा है ॥१०॥ यो वमन्येतं ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्विजः । स साधुभित्रहिष्कार्यो नास्तिका वेदनिन्टकः ॥११॥ वेदः स्मतिः सदाचार: स्वात्य चं प्रियमात्मनः । एतचतुर्विधं प्राहुः साक्षावर्मस्य लक्षणम् ॥१२|| जो द्विज कुत्तोदि से इन (धर्ममूलों) का अपमान करें वह साधुवों को निकाल देने योग्य हैं, क्योंकि वेदनिन्दक नास्तिक है ॥१२॥ वेद-श्रुति, स्मृति (मन्वादिको की ) सदाचार शीलादि और अपना सन्नाप; यह चार प्रकार का साक्षान् धनलक्षण (मुनि नाग) कहते हैं ।। १२॥ अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । धर्म जिज्ञांसमानानां प्रमाणं परमं अतिः ॥१॥ श्रुतिद्व | तु यत्र स्यात्तत्रं धर्मावुभौ स्मृतौ । उभावपि हि तौ धौ सम्यगुक्ती मनीषिभिः ॥१४॥ अर्थ और काम में जो पुरुष नहीं फंसे हैं, उनका धर्मोपदेश