पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद का विधान है और जो पुरुप धर्म जानने की इन्छा रखते हैं उन को परम प्रमाण वेद है।॥१३॥॥ श्रुनियों के जहां दो प्रकार हो (अर्थात् भिन्न र अर्थ का प्रतिपादन हो) वहा व दोनो (तुल्य बल के कारण) ही धर्म हैं. दाना विनससे अनुप्रय हैं। यह श्चपियोंने कहा है ॥ १४॥ उदितेऽनुदिने चैब ममयान्युपिते तथा । सया बचते यन्न इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥१५॥ निकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्यादिता विधिः। तस्य शास्त्रधिकारास्मिन्बोनान्यस्य कस्यचित् ॥१६॥ (पूर्व जो कहा कि श्रुतिमंद दानों माननीय हैं, उसको यहां विखाते है, जैसे-) उदित सम्म्य में अधांत सूर्य के प्रादुर्भाष के समय मे, अनुदित उसके विरुद्ध और समयाच्युपित अर्थात् सूर्य नक्षत्र रहित काल में सर्वथा यन (होम) होता है । यह वैदिकी अति है अर्थात् वेदमूलकवाक्य सुनते हैं। (श्लोक १५ के आगे ३० प्रकार के पुस्तकोंमें से ३ मे ये दो रनाक अधिक पाये जाते हैं - [अति पश्यन्ति मुनयः स्मरन्ति तु यथास्मृति । तस्मात्प्रमाणं मुनयः प्रमाणं प्रथितं मुवि ॥१॥ धर्मव्यतिक्रमोडष्टः श्रेष्ठानां साहसं तथा । तदन्दीज्य प्रयुचानाः सीदन्त्यपरधर्मजाः ॥२॥ हमारा नात्पर्य इनके लिखने से यह है कि लोग यह जान लेवें कि मनुस्मृति मे पाठों की अधिकता अवश्य होती आई है) ।।शा गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त जिस कर्म की वेदोक्त मन्त्रों से विवि कही है उस कर्मका अधिकार (प्रकरण) इस(मानवधर्मशास्त्र)