पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/८६

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द्वितीयाध्याय में जानिये. अन्य किसीका नहीं ॥ १६॥ सरस्वतीदृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम् । तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावत प्रचक्षते ॥१७॥ तस्मिन्देशे य आचारू पारम्पर्यक्रमागतः । वर्णानां सान्तरालाना स सदाचार उच्यते ॥१०॥ सरस्वती और हषहती इन देवनदियों के मध्य में जो देश है नह देवताओं से बनाया गया है उस को ब्रह्मावत कहते हैं ॥१५॥ उस देश में परम्परा से प्राप्त जो वर्षों (अर्थान् ब्राह्मण क्षत्रिय पैश्य शूद्र) और वर्णसङ्करो का आचार है, उस को सदाचार (सदा का आचार) कहते हैं । (१८ वें के आगे एक श्लोक वेधातिथिके भाष्य में पाया जाता है; अन्यत्र कहीं नहीं । वह यह है [विरुद्धा च विगीता च दृष्टार्थादिप्टकारणे । स्मृतिर्न श्रुतिमूलास्याद्या चैपा सम्मवश्रुतिः ॥१॥ ] इस से हमारा सन्देह पुष्ट होता है कि मनु में कुछ पीछे की मेलावट अवश्य है और वेदविरुद्ध स्मृतियों का होना भी इससे पाया जाता है ॥२८॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः । एप ब्रमर्पिदेशो वै प्रमादिनन्तरः ॥१६॥ एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । व स्वं चरित्र शिक्षेन पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥२०॥ कुरुक्षेत्र और मत्स्य देश. पचाल और शूरसेनक-यह ब्रह्मपि देश है नो ब्रह्मावत से समीप है ॥१९॥ इन (कुरुक्षेत्राति)