पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९१

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मनुस्मृति मापानुवाद सावित्री नही जाती और क्षत्रिय की बाईस वर्ष पर्यन्त, वैश्य की २४ वर्ष पर्यन्त (अर्थात उपनयन कालकी यह परमावधि है)।३ai अतऊर्च त्रयोऽध्येते यथाकालमसंस्कृताः । सावित्रीपतिता बाल्या भवन्त्यार्यविहिताः ॥३॥ नैतैरप्तैविविवनापद्यपि हि कहिचित् । वामान्यौनांग्च संवन्धानाचरेबामणः सह ॥४०॥ इसके उपरान्त ये नीनों सावित्री पतित हो जाते है। अपने २ काल मे उपनयन से रहित होने से इनकी संज्ञा 'ब्रात्य' होती है और शिष्टोंसे निन्दित होते हैं ।।३९|| इन अपवित्र नात्यो के साथ जिनका प्रायश्चित्वादि विधिपूर्वक नहीं हुवा, आपत्काल में भी प्रामणादि विद्या वा योनि का सम्बन्ध न करे ॥४०॥ कार्यारोवपास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः । बसीरनानुपुर्येण शाणचौमाविकानि च ॥४१॥ मौजी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्याविप्रस्य मेखला। चत्रियस्पतु मौवीच्या पैश्याम्य शणवान्तवी ॥४२॥ कृष्णमृग, रुरु मृग, अज इनके चर्मों का वस्त्र ३ वर्ण के प्राचारी क्रमश' रक्खें और सन, क्षौम (अलसी) तथा ऊन का भी ॥४१॥ प्रामण की मेखला तिलड़ी और चिकनी सुखस्पर्शवाली मब्ज की और क्षत्रिय की मूर्या तृण से धनुप के गुण सी और वैश्य की सन के डोरे की वनावे मुजालामे तु कर्तव्या कुशाश्मन्तकबल्वजैः । त्रिवृता प्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा ॥४३॥