पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९२

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द्वितीयाऽध्याय कापसमुपवीतं स्याद्विप्रस्थान वृतं त्रिन् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकमात्रिकम् ॥४४॥ मूज के न मिलने पर कुश, अश्मन्तक, बल्बज तृणो की क्रम से तीनों वणों की संखला तीन लड़ वाली १ या या ५ माथि लगा कर बनाये ॥४३|| कपाम का जनेऊ पाणण का ऊपर को वटा हुआ और त्रिगुरण (३ लइ) हाव और सन के द्वार का क्षत्रिय का और वैश्य का भेड़ की ऊन का हावं ॥४४॥ ब्राह्मणी चन्चपालाशो चत्रियो बाटखादिरी । पैप्पलौदुम्बरी पैश्या दण्डानहन्ति धर्मसः ॥४॥ केशान्तिका नामणस्य दण्डः कार्य प्रमाणत' । ललाटमंमितारानः समात्न नामान्तिकाविशः ॥४६॥ ब्राह्मण बेल वा पलाश के दण्ड, क्षत्रिय वट वा खदिर के तथा वैश्य पीपल वा गूलर के दण्ड. क्रम से सब धर्मानुसार चनावे ।। (इस श्लोक मे नन्दन टीकाकार ने बामणादि ग्रन्थो प्रमाण देकर विवादि के साथ बामणादि की समानवा दिखाई है। वह लिखता है किर-अमीबा श्रादित्यो यतो जायत तता बिल्ल उदतिटव स योन्यैव ब्रह्मावर्चममवरुन्धे इति असे. अथान् जिम कारण की प्रधानता से सूर्य बना है, उसी में बिल्व का वृक्ष भी उपजा है, इसलिये वह जन्मसे ही ब्रह्मवर्चस का प्रभाव (असर) धारण करना है। इस कारण बामण वेलका दण्ड धारण करें। तदुक्तमतरेयब्राह्मणे नत्र या एतद्वनस्पतीनां यन्न्यग्रोधः । क्षत्र वै राजन्य इति अर्थात् ऐतरेय ब्राह्मण में यह लिखा है कि वट वृक्ष वनस्पतियों में क्षत्रिय है । क्षत्रिय राजा है। इसलिये क्षत्रिय वड़ का दण्ड रक्खे । ३-मरुतोवा एतदाजा यदश्वत्थ । मरुतोर्व १२