पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९३

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१० मनुस्मृति भाषानुवाद देवानां विश' इति श्रुते' अर्थान् अश्वत्थ (पीपल) वायु के बलसे प्रधानता से युक्त है और वायु दस्तों का वैश्य है, क्योकि देवतों के हव्य पदार्थ इधर उधर लेचलना है। जैसे वैश्य लोग भोजनादि . के अन्नाबि एक देश से दूसरे देश में ले जाते हैं। इसलिये वैश्य पीपल का दण्ड बनाये । इसके अतिरिक्त अन्य जिन वृक्षो वा तुणों के बण्ड वा मेखला का विधान है उनमे भी उस वर्ण के साथ किसी स्वाभाविक समानताका अनुमान होता है, जो ब्राह्मणं अन्यों के गजन से मिल सकता है। किन्हीं पुस्तकों मे "पैलवी- दुम्बरौ” भी पाठ है ।।४५।। ब्राह्मण का केशान्तिक अर्थात शिर के बाल तक लम्बाई का दण्ड होव और ललाट तक क्षत्रिय का तथा वैश्यका दण्ड नाक तक लम्बा होने ॥४॥ अजयस्ते तु सर्वे स्युरप्रणाः सौम्यदर्शनाः । अनुहोगकरा नणां सत्वचोनाग्निदृषिताः ॥४७॥ प्रतिगृह्योप्सितं दण्डमुषत्थाय च भास्करम् । प्रतक्षिण परीस्पानि चरईचं यथाविधि ||४|| और वे मव (दण्ड) सीधे हो, कटे न हो, देखने में सुन्दर हो तथा मनुष्यों को डरावने न हो, बल्कनसहित हों और पाग से जले न हो ॥४॥ यथेष्ट दण्ड को ग्रहण करके और आदित्य के सम्मुख स्थित होकर अग्नि को प्रदक्षिणा देकर यथाविधि मिक्षा करे ॥४८॥ भवत्पूर्व चरे समुपनीता द्विजोत्तमः । भवन्मध्यं तु राजन्यो चैश्यस्तु भवदुत्तरम् ॥४६॥ मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनी निजाम् । भिक्षेत भिक्षा प्रथमं या चैनं नाबमानयेत् ॥५०॥