पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीयाऽध्याय उपनीत मादाय भवन् शब्द को प्रथम उच्चारण करके भिक्षा करे। क्षत्रिय भवन् शब्द को मध्य में, वैश्य अन्त में (अथान् ब्राह्मण-भवती भितां ददातु' इस प्रकार उच्चारण करे। क्षत्रिय 'मिक्षा भवती ददातु, वैश्य-मिक्षां ददातु भवती' इस प्रकार वीनों का क्रम है ॥४९॥ प्रथम माता से भिक्षा मागे या मासी या अपनी भगनी से और जो कोई इसका अपमान न करे ||१०|| समाहृत्य तु तद्भवं यावदर्थममायया । निषेध गुरुवेश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः ॥५१॥ "श्रायुप्यं प्रामुखा मुक्त यशम्य दक्षिणामुख. । निय प्रत्यइमुखामुक्त शून भुलते शुङ्मुख ॥५२॥' वह मिना लाकर निष्कपट होमे गुरु को तृप्ति भर देकर आप आचमन करके पूर्वाभिमुख होकर भाजन करे ।।११"आयु के हित के लिये पूर्वाभिमुख होकर यन के अर्थ दक्षिण की ओर होकर. सम्पत्ति के निमित्त पश्चिम और सत्य चाहे तो उत्तर की ओर मुख करके भोजन करे | (पूर्वादि दिशाओं का आयु आदि के साथ कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता! केवल किन्ही टीकाकारों ने इसे काम्य वचन कहा है। यदि उनका कहना माने नो श्रायु आदि की कामना वाले क्रमश. पूर्वादि नियत दिशाओं में मुम्ब करके भोजन किया करें, यह मानना होगा। ब्रह्मचारी के कर्तव्यों में यह कोई आवश्यक भी कर्तव्य नहीं । इस लिये हम को यह श्लाक प्रक्षिप्त सा प्रतीत होता है और इस से आगे एक अन्य श्लोक है, जो कि उज्जैन के (आठवले) नाना माहेब के रामचन्द्र टीकायुक्त पुस्तक और पूना के (जोशी) वलवन्तराव के मुल पुस्तक में पाया जाता है।