पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९५

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मनुस्मृति भाषानुवाद तथा श्याग के (मुन्शी) हनुमानप्रसाद जी के मूल पुस्तक में (*ऋतिनादितम् ) पाठभेद है। शेष २७ पुस्तकों में नहीं पाया जाता। इस से जान पड़ता है कि थोड़े समय से ही बढ़ाया गया है। तथा रामचन्द्र टीकाकार के अतिरिक्त शेप ५ में से किसी ने भी इस पर टीका नहीं की, और गमचन्द्र सबस अन्तिम समयके टीकाकार है। इस से भी प्रतीत होता है कि मेधातिथि आदि रामचन्द्र से पुराने टीकाकारों के समय में यह श्लोक न था, जिस का पाठ इस प्रकार है :- [सायं प्राताईजातीनामशनं स्मृति ( श्रुति) नादितम् । नान्तरे भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमाविधिः ॥५२॥ ] इस का अर्थ यह है कि द्विजों को (श्रुति वा) स्मृति ने साय, प्रातः दो वार भोजन की आज्ञा दी है। बीच में भोजन न करे। इस की विधि अग्निहोत्र के समान है। यद्यपि हम को इस में कोई बुराई नहीं प्रतीत होती. परन्तु यह श्लोक नवीन समय का है और कुछ आश्चर्य नहीं कि वह पहला श्लोक जो अव सब पुस्तकों और टीकाओं में उपस्थित है वह भी कुछ पुराने समय मे मिलाया गया हो) ५२॥ उपस्पृश्य द्विजो नित्यमनमद्यात्समाहितः । मुक्त्वा चोपस्पृशेत् सम्यगतिः खानि च संस्पृशेत् ॥५३॥ पूजयेदशनं दृष्ट्वा हुप्येत्प्रसीदेच प्रतिनन्देश्च सर्वशः ॥५४॥ ब्राह्मणादि नित्य आचमनादिक करके एकाग्र हो, भोजन करे। भोजन करने के पश्चात् भी भले प्रकार आचमन करे और चक्षुरादि का जल से स्पर्श करे ॥५३॥ और भोजन के समय नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन् । ,