पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९६

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द्वितीयाऽध्याय ९३ अन्न का प्रति दिन लंकार कर निन्दा न करके भोजन करे और दव के हटप्रवन हो और मवथा प्ररांना करे ||५|| पूजिनं हरानं नित्यं बलमूर्ज घ यच्छति । अपूजितं तु तमुक्तमुभयं नाशयदिदम् ॥५॥ नाच्छिष्ट कस्यचिद्द्यान्नाद्याचेत्र तथान्तरा । न चैवाध्यशनं कुर्यान चाच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत् ।५६ संस्कृत अन्न वीर्य को देता है और प्रसंस्कृत, चल, मामर्थ्य इन दोनों का नाश करता है (इसलिये मंकार करके भाजन करना चाहिये) १५॥ उच्छिष्ट अन्न किमी को न दे भाजन के बीच में ठहरकर भोजन न करे. अधिक भोजन भी न करे और उच्छिष्ट कहीं गमन न करे ।।६।। अनारोग्यमनायुष्यमस्वयं चातिभाजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्माचस्परिवर्जयेत् ॥५७|| ब्राह्मण विस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत् । कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन ॥५॥ अति भोजन करना आरोग्य, आयु तथा सुख नहीं देता, पुण्य भी नहीं होता और लोगों में निन्दा होती है, इस लिये शति भाजन न करना विन सर्वदा ब्राह्मती से आचमन करे अथवा प्राजापत्य या देवतीर्थ से करे , परन्तु पिन्यवीर्थ से कमी न करे। (हाथ में काम करने के वा आचमन करने के वा आहुति छोड़ने के चार (तीयं ) उतारने के स्थान हैं। उन में ब्राह्मादि उत्तरात्तर अच्छे है । अर्थात् सुगमता से काम कर सकने योग्य 1