पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९७

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, मनुस्मृति भाषानुवाद हैं। पि यतीर्थ से आचमन न करने का हेतु वेतनापन है क्योंकि अगले श्लोक में तर्जनी अंगुलि और अंगूठे के नीचे के स्थान को पिन्यतीर्थ कहा है उस में नमन करना अत्यन्त कठिन होने से वर्जित है । वह तीर्थ अग्नि मे पिन्य आहुति देने के लिये सुगम पड़वा है)। अशुष्ठमूलस्य तजे ब्रामतीर्थ प्रचचते । कायमगुलिमूलेन देव पित्र्यं तयोरयः ||६|| त्रिराचामेदपः पूध द्विः प्रमज्याचता मुखम् । खानि चैव स्पृशेदहिरात्मानं शिर एव च ॥६॥ अंगुठमूल के नीचे (कलाई) को ब्राह्मतीर्य कहते हैं और कनिष्ठा अंगुलि के मूल में कायतीर्थ और उसी के अप्रभाग में देवनीर्थ और अंगुष्ट तथा तर्जनी के मध्य में पित्र्य तीर्थ है। (यनादि में आहुति आदि कामों के विभागार्थ यह कल्पना की होती है । विशेष प्रयोजन कुछ नहीं जान पड़ता ) १९प्रथम जलसे तीनधार आचमन करे, अनन्तर हो वार मुख धोबे, पश्चात् इंद्रिया, शिर और हदय का जल से स्पर्श करें ॥६॥ अनुष्णा भरफेनामिशिस्तीर्थन धर्मवित् । शौवेप्मुः सर्वदाचामेदेकान्ते प्रागुदङ्मुखः ॥६१॥ हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः । वैश्योतिः पाशितामिस्तु शुद्रः स्पृष्ठामिरन्ततः ॥६॥ फेनरहित शीतल जल से पवित्र होने की इच्छा करने वाला धर्मश एकान्त में पूर्व या उत्तर को मुख करके आचमन करे ।६१॥ (वह पूर्वोक्त आचमन का जल) हृदय में पहुँचने से ब्राह्मण .