पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/९८

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द्वितीयाध्याय पवित्र होता है। कल से प्राप्त होने से नत्रिय और मुख में पहुँचने से वैश्य तथा म्पर्शमात्र से शह पवित्र होता है ॥२॥ उद्धने दक्षिणे पाणाचुपवीत्युच्यते द्विजः । सव्ये प्राचीन बाबीती निवीती कण्ठसज्जने ॥६॥ मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम् । अप्सुप्रास्य विनष्टानि गृीतान्यानि मंत्रवत् ॥६४॥ दक्षिण हाय को बाहर निकालने (वायें के ऊपर जनेक कर लेने) पर द्विज उपवीती कहाता है। इसके विपरीत करने पर प्राचीन बाबीती, और जनेऊ काठ से लगा हो तब 'निवीनी' कहाना है ॥शा मेखला और मृगचर्मादि तथा दण्ड जनऊ और कमण्डल, इन टूटे हुवों को पानी में डाल कर और नवीन को मन्त्र पढ़ कर ग्रहण करें। केशान्तः पोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते । राजन्यत्रबन्धोविंश मेश्यस्य द्वयधिके ततः ॥६५॥ "अमन्त्रिका तु कार्ये स्त्रीणामावृद्धरोपन. । संस्कारार्थ शरीरत्य यथाकालं यथाक्रमम् ॥६६॥' ब्राह्मण का केशान्त संस्कार मोलहवे वर्ष में करें और क्षत्रिय का २२ बाईसवें में तथा उससे अधिक (२४ चौबीसवे वर्ष) में वैश्य का ॥६५॥ यह (जातकर्मादि) सम्पूर्ण कार्य उक्त काल और क्रम से शरीर के मंकारार्थ स्त्रियों के श्रमन्त्रक करे अर्थान् स्त्रियों के इन संस्कारों में वेदोक्त मन्त्र न पढ़े ॥६ "वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥६" .