पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/५४

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चित्तौड़ के किले में * सूरज का मुंह लाल हो गया था और वह धरती में धंस रहा था। आसमान आँखों में आँसू भरे खड़ा था, कोहरा और अन्धकार बढ़े चले आते थे मैं महाराना कुम्भा के कीर्तिस्तम्भ की सब से ऊपर की चोटी पर खड़ा हुआ यह सब देख रहा था !! जमीन से मीलों ॐची हवा में, राजपूती विध्वंस की हाय भर रही थी । मरे हुए पशुओं की हड्डियों के ढेर की तरह पद्मिनी का महल ढहा पड़ा था, मीरा का मन्दिर कंगाल ब्राह्मण की तरह पैसा २ भीख मांग रहा था; जयमल और फतहसिंह के महलों के मुर्दे दीदे दिखा रहे थे। इन सब के बीच में वर्तमान के ये पंक्तियाँ सन् १६ में पहली बार चित्तौड़ का किला देखने पर वहीं बैठ कर लिखी गई थी।