( ८३ ) निरपराध बच्चों की माताओं की कम्पित गम्भीर निश्वास की ध्वनि सुनो-क्या तुम उसे अपनी बाँसुरी की प्रतिध्वनि समझते हो ? वह कारागार की. मनहूस दीवारों के पीछे आश्चर्य कारक भीड़ की आश्चय कारक उत्तेजित दिन चर्या देखो--इसे क्या तुम अपने राजसूय के उत्सव की भीड़ समझते हो ? और सब के पीछे---हमारा खून से भीगा पल्ला देखो, हमारी बहन बेटियां का धूल भरा आँचल देखो हमारा अनन्त उन्माद देखो ? क्या तुम इसे अपने फाग का रस रंग समझते हो ? अच्छा अब हँसो, देखू तुम कैसा हँसते हो। हाय ! निष्ठुर तुम अब भी हसते हो । कुछ भी समझ में नहीं आता, वासना से परे तुम्हारा लक्ष्य है । वर्तमान से परे तुम्हारा जीवन है । जीवन के परे तुम्हारा उद्देश्य है, मृत्यु से परे तुम्हारा प्रभाव है। चेष्टा व्यर्थ है। हम तुम्हें कभी न समझ सकेंगे ? तो हम तुम्हारा अनुगमन ही करें ? तुम्हारे पाद चिन्हों पर चलें ? इस अनी की लोट पर, इस भीषण ज्वार में इस प्रलय के तूफान में-हम-दुर्वल-असहाय, अज्ञान प्राणी-अपनी आपदा, अप- मान, नाश और संकट की परवा न करके-केवल तुम हसते हो इसलिए हसें ? तुम सहते हो-इसलिये सह ? अच्छी बात है । हे आत्मा के अमर पुरुष ! हे कर्म के अखण्ड तेज-
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