सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १३२) ___ मल्लिकादेवी। छिब्बीसवां छब्बीसवां परिच्छेद । अपूर्व भाव । " मधुलिह इव मधुपिन्दून विरलोनपि भजत गुणलेशान् ।” (वेणीसंहार) मलादेवी निज प्रकोष्ठ में बैठी पूजा कर रही थीं।

  • आसन स्थिर और ध्यानषद्ध था। निशीथ कासमय
  • होगया था, किन्तु अब भी उनकी पूजा का विराम

SUPAR नहीं था। पूजा समाप्त करके वह पुस्तक पाठ करने लगीं। इसी अवसर में सरला सन्मुख आकर उपस्थित हुई, किन्तु कमला पुस्तक के पाठ में इतनी ध्यानावस्थित थीं कि सन्मुख सरला की सरल मूर्ति को नहीं देख सकी । सरला भी नीरव सन्मुख खड़ी रही। सरलों के समीप एक दूसरी रमणी ने आकर उसका हाथ धरा, यह देख सरला हर्षित होकर धीरे धीरे उसके कान में कहने लगी,-"प्रिय सखी, मल्लिका ! महाराज मागए । जाओ, अपने घर में जागती रहना ।" यह रमणो हमलोगों की श्रद्धास्पदा मल्लिकादेवी थी। उसने धीरे से सरला का हाथ दबाकर कहा,-"चुप! मां सुन कर क्या कहेंगी?" यों कहकर वह वहासे हट गई। ___ सरला को वहीं खड़े खड़े आधी घडी व्यतीत हुई, इतनेही में कमला का पाठ भी समाप्त हुआ और उन्होंने सन्मुख सरला को देख कर उत्साहपूर्वक कहा,-"सरला! तू आगई ? क्यों तू कबकी खड़ी है ? सरला.-"मां ! तुम पूजा में थी, मुझे आए डेढ़ घड़ी हुई होगी, डर से पूजा के समय मैने आपसे कुछ न कहा।" फमला,-"हरे ! हरे ! क्यों नहीं कहा?--अस्तु क्या समा. धार है ?" सरला,-"आपके दर्शन के लिये महाराज भाए हैं।" कमला,-"श्या कहा ! वे आगए क्या १८ ! और तैने उन्हें