पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१३९

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परिच्छेद। वङ्गसरोजिनी। (१३७) - vv मरला,-"और कहती ही, नहीं ? भला महाराज के भागे सरला का यथार्थ न्याय कभी होसकता है ?" सरला की बातों से दोनों हसने लगे। अनन्तर सरला का इडित पाकर कमलादेवी उठ खड़ी हुई: तब नरेन्द्र ने उनका चरण स्पर्श करके कहा,-"मां! आशीर्वाद दीजिए तो मैं प्रस्थान करूं।" कमलादेवी ने नरेन्द्र के सिर पर हाथ फेर गद्गद कठ से कहा,-"बेटा! तुम्हारी,मार्कडेय की सी अवस्था हो और कराल. वदना, महाकालेश्वरी, भद्रकाली तुम्हारा मङ्गल करें। नरेन्द्र ने पुनः प्रणाम किया और कमलादेवी आशीर्वाद देकर गृहान्तर में प्रविष्ट हुई । तदनन्तर सरलो ने नरेन्द्र का हाथ थाम कर कहा,-"इधर आइए । " फिर वह उन्हें एक परिष्कार प्रकोष्ठ के समीप लेगई और द्वार पर पहुंच कर बोली,-"लो! अच क्या देखते हो, भीतर प्रवेश करके प्रफुल्ल मल्लिका का विकाश देखो !!!" नरेन्द्र.-"सरला! तुम निरी मुहंफट्ट हो; किचितसंकोच का लेश तुम नहीं रखनी।" . । सरला,-"अच्छा, मैं निलंजही सही; तुम तो लज्जा के सागर हो न ? जाओ, भीतर जाओ।" नरेन्द्र,-"तुम भी चलो।" इस पर “ नही; " कहकर सरला यहांसे अंतर्हित हुई और प्रसन्नता से नरेन्द्र ने भीतर प्रवेश किया। ___ महाराज नरेन्द्रमिह कमलादेवी से जिम भांति मिले, उससे कदाचित पाठकवर्ग नरेन्द्रसिह के ऊपर चापलूमी का दोष मढेंगे, और यो समझेंगे कि,-'नरेन्द्र ने मल्लिका के पाने की लालसा स्ने उसकी मां की इस प्रकार खुशामद की।' किन्तु नहीं ऐसा नहीं है। बात यह है कि नरेन्द्र की माता राजलक्ष्मीदेवी और मल्लिका की माता कमलादेवी में अत्यंत स्नेह था, इसलिये नरेन्द्र कमला पर माता के समान भक्ति करते थे।