( १३८) मल्लिकादेवी। [ सत्ताईसवां सत्ताईसवां परिच्छेद C मिया-प्रियतम। "वियोगवन्याकुलिता नरा मुहुर्वाञ्छन्ति संयोगसुधारमं सदा। (रत्नमाला) 506रेन्द्र ने भीतर प्रवेश करके देखा कि एक सुगजित (Bla) प्रकोष्ठ में परिष्कार मागन पर लजावनतमुखी MO मल्लिका बैठी बैठी नख से भूमि खनन कर रही है। नरेन्द्र को आते देखकर उसका कोमल हदय सात्विक भाव के उदय होने से कांपने लगा; अङ्ग कटफित और मुख प्रस्वेद मय हुआ। नरेन्द्र की भी यही अवस्था होगई । पदस्तभिन, अङ्ग प्रत्यङ्ग अचल, और जिला जड होगई ! न वे आगे बढ़ सके, न कुछ घायस्फूर्ति हुई । क्षण काल तफ उभय प्रणयी इसी दशा में रहे। अनंतर मल्लिका उठी और वहांसे भागने का विचार करने लगी। लजाशीला बाला का आन्तरिक भाव प्रणयी के अरिरिक्त और कौन हदयंगम कर सकता है ? तपच नरेन्द्र ने उसका अभिप्राय समझ, हम कर कहा,-"प्यारी, मल्लिका ! पहिले तो तुम हमले प्रीतिपूर्वक संभाषण करती थीं; आज क्या है, जो मुख रो योलती भी नहीं ! गृहागत अतिथि का ऐसाही स्वागत किया जाता है ? बाह! चली, कहां! प्रथम यह कह लो कि हमारा अपराध क्या है जो इतनी रुष्ट होकर तुम यहांले जाया चाहती हो ! प्रियतमे ! यह तुम्हाग नूतन भाव है !!!" मल्लिका लजा से मृयमा होकर अम्फुट स्वर से बोली- "तुम्हारे ऐसा बोलना में कहासे संखं ? " यह कमनीय कण्ठनिसृत अमृत ध्वनि नरेद्र के रोम रोग में प्रविष्ट होकर प्रेमोद्गार प्रकट करने लगी। उन्होंने हंसकर मल्लिका को गले लगाकर बैठाया। मल्लिका लजित होकर बैठ गई, और हृदय में साहस धर कर पुनः कहने लगो,-"महागज!क्षत्रिय धीर होकर सुमने इस नीन प्रथा का मापन कब ले लिया ?" नरेन-कौनसी प्रथा, प्रिये !--
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