परिच्छेद] षङ्गसरोजिनी। (१३६ ) मल्लिका,-"अपहरण की प्रथा।" नरेन्द्र ने हास्य सवरण करके कहा,-"महा! माकाश में जमा पारिकण हैं, पर सूर्य पृथ्वी काही रस क्यों अपहरण करना है ?" मल्लिका,-"तो जाना गया कि तुम्हारे लिये यह फर्म निन्दनीय नहीं है, परन तुम्हारे लिये,-'गुणायन्ते दोषा:'--" नरेन्द्र,-"प्रिये! जाने दो, हमने अपना अपराध स्वीकार किया, पर तुम भी तो उसी अपराध की अपगधिनी हो। ____ मल्लिका,-" नहीं, उस अपराध के केवल तुम्ही अपराधी हो, मेरे ऊपर उलटा दोषारोप न करो।" नरेन्द्र,-"अस्त तुम्ही जीती,अब इस अपराधका पादंड दोगी?" मल्लिका,-" और नहीं तो क्या छोड दूंगी ?" इतना कहकर मल्लिकाने निज प्रथित फूलों की माला लाकर नरेन्द्र के गले में डाल दिया, और एक पुष्पदाम से उनका हाथ बाध कर कहा,- "अब फहो ! बांधा न बस । यही तुम्हारे योग्य दण्ड है।" यो कहकर उसने नरेन्द्र का हाथ छोड़ दिया। नरेन्द्र ने जिस अपूर्व म्वर्गीय सुख का अनुभव किया, भुक्तभांगी पाठक उम्मका अनुभव स्वय कर सकते हैं। फिर नरेन्द्र ने मल्लिका को गले लगाकर उसके कपोल का चुंबन किया,और हँस कर कहा, "देवा,प्यानी! तुमने हमें अधिक दड दिया है, अतः इस अन्यान्य का दड तुम्हें भी मिलेगा। यो कहकर उन्होंने अपने गले की सालानों में से एक माला उतार कर मल्लिका के गले में डाल दिया, और पेटक (पाटिक में से एक होरे का कठा निकाल कर मल्लिका के गले में लग कर कहा,-"बम ! तुम्हारे अन्याग का इन मोती दाम योष्टी!" कंठे की ओर दुष्टिपात कर मल्लिका निर्वाक हार मिनिमेष लोचनों से नरेन्द्र की ओर देखने लगी । नरेन्द्र ने उन परता जानकर कहा,-"क्षति का है ? म फरा तम्हारे पानहै?" मलिहा,-"यह ठीक है, किन्तु य: मैं न लंगा Hiriti it देखकर लड़ेंगी। देखो, तुम्हारी अंगूसरी ओर मोगियों की माला का वृत्तान्त मां ने जान लिया और उन्हें देखा भी।- नरेन्द्ध,--"देख कर घे कुछ कहतो थी ?"
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