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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/५९

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परिच्छेद]
( ५७ )
वङ्गसरोजनी।

प्रौढ़ा,-"सरला ! स्वामी का बैरनिर्यानन किए बिना, क्या मैं स्थिर होसकती हैं ? किन्त उपाय क्या है ? यदि उन्हें करना होता तो वे स्वय क्या आजतक दुष्ट यवन से बदला न लेते ? तब मैं व्यर्थ क्यों किसीको मुख दिखलाऊ, और बिनय करू ? भीरनारी क्या किसीसे कातरस्वर से अपनी सहायता के लिये अनुरोध करतीहै?"

सरला,--"तब मल्लिका की क्या दशा होगी ?"

प्रौढ़ा.--"उसका मन परिवर्तन नही हो तो, इसका मुझे भी महाशोक है।

सरला,--" हा! वह किसी प्रकार अपनी माशा से विमुख नही होती, और अहर्निशि उसी युवक के ध्यान में डूबी रहती है।"

प्रौढ़ा,--"सरला! मेरी बुद्धि इस समय नितान्त घबरा गई है। अस्तु,मै मल्लिका को प्राण रहते कभी कष्ट नही देस कूंगी अतएव यदि उसकी एकान्त इच्छा होगी, तो मैं आत्मघात करके उसके मुख का पथ प्रशस्त करदूंगी, क्योंकि जीवित रहते तो मैं उसी व्यक्ति को मल्लिकासमर्पण करूगी, जो उस यवन का बध करेगा।"

सरला,--"मा! मल्लिका की भी यही इच्छा है, वह कदापि आपकी इच्छा के विरुद्ध नही है।"

प्रौढ़ा,--" तब तू क्या चाहती है ?"

सरला,--"मां! महाराज आपके वृत्तान्त को नहीं जानते,उन्हें इस रहस्य को ज्ञात करा देने से वे तत्क्षण आपकी प्राणपण से सहायता करेगे, और यही मल्लिका भी चाहती है। इसमें पुत्री की इच्छा और आपका मनोरथ भी पूर्ण होगा।"

प्रौढा,--"सरला ! मैं क्या उनकी प्रार्थना करूंगी?"

सरला,--"देवी!जरा ध्यान तो दो! जिसने ऐसे सङ्कट की दशा में पहुंच कर हमलोगों का उद्धार किया,-अहा! जिसके मत्री ने आपकी भगिनी की कन्या को दस्युदल से रक्षा की, वे क्या इस कार्य को न कर सकेंगे ? वे क्या ऐसे उपकारी होने पर भी दया के पात्र नहीं हैं ?"

प्रौढा--"तो क्या मैं उनसे अपने कार्य-साधन का अनुरोध गौर बिनय, जो आजतक किसीसे मैंने नहीं किया, कातरस्वर से करूगी? यह कदापि नहीं होसकता । सरला तू ! क्या मुझे व्यस्त करके प्रतिज्ञा से च्युत कराया चाहती है ?"