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[चौदहवां
मल्लिकादेवी।

दैवसंयोग से उसी झाडी में जापटुंना,जहा खुले मैदान में महाराज नरेन्द्रसिंह का घोडा अपनी मौज से चरता और बिचरता फिरता था। उस अश्व को देख,उसमान जैसे धूर्त ने इस बात का निश्चय कर लिया कि,-'जबकि नरेन्द्र का घोडा यहां पर है,तब उसका भी यहीं पर और इसीखडहर में ही होनामुमकिन है। सो उसका सोचना ठीक हुआ और वह उसी झाडी में छिपा बैठा रहा। दूसरे दिन जब महाराज नरेन्द्रसिह मल्लिका और सरला से यिदा होप्रस्थान करनेलगे तो उसयवन उसमान का अनुमान निश्चय से बदल गया और उसने नरेन्द्र की टोह के साथ मल्लिका और सरला का भीगुप्त निवासस्थान जान लिया। फिर उसमानने नरेन्द्रसिंह का पीछा किया, पर जब उस अत्याचारी कोमार्ग में नरेन्द्रसिहन मिले तो उसने नव्वाब से मिल और उस (नव्याय)के हुक्म से पचास सवारों के साथ आकर मल्लिका तथा सरला को बंदी कर लिया था, जिसका हाल हलिख आए हैं।

अच्छा तो अब हम अपने उपाख्यान के क्रम की मार झुकते हैं,-

महाराज नरेन्द्रसिंह खडहर से निकल और अपने आश्व पर आरूढ होकर 'मांतीमहल' नामक पहाडी दुर्ग की ओर चले। मध्याह्न का समय था, जब किवे एक लम्बे मार्ग को समाप्त करके एक सघन बन मे पहुंचे थे और वहां पहुंच क्षण काल के निमित्त इसलिये ठहर गए थे कि जिसमे कुछ जलपान कर लिया जाय और अश्व भी चारा-पानी खा-पीकर इस योग्य हो जाय कि पहाडी मार्ग में सुगमता से चल सके।

अभी महाराज उस बन में, जो व्याघ्रवन' के नाम से प्रसिद्ध था, पहुंचेही थे कि उनके कानो में घोड़े के टापों की ध्वनि सुनाई दी। जिसे सुनतेही वे उतरते हुए भी अपने घोडे की पीठ पर दृढ़ता से बैठ गए और उन्होने म्यान से तल्वार बैंच ली । ठीक उसी समय उनके सामने एक सवार ने पहुंच कर अभिवादन किया।

महाराज उसे देखतेही चकित होगए और बोले,-"अद्भुत गनुष्य! तुम यहां भी आपहुंचे!"

आगन्तुक ने अपनी हसी ओठों में दवा कर कहा,-"श्रीमान के बिना मुझे चैन कहा !"

महाराज,-"भला यह तो बतलाओ कि हम, अपने प्राणरक्षक के परिचय से अब भी कृतार्थ न होंगे?"