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पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/७३

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परिच्छेद]
(७१)
वङ्गसरोजनी।

आगन्तुक,--"श्रीमान् ! यह आप क्या कह रहे है! जगदीश्वर के अतिरिक्त कौन किसकी रक्षा कर सकता है !"

महाराज,--"यह सत्य है, किन्तु यदि तुम उस कालकोठरी में हमें शस्त्र प्रदान न करते तो हम उसी समय दुराचारी यवनों के आखेट होगए होते।

आगन्तुक,--" श्रीमान् ! तो क्या आप मुझ अधम के परिचय पाने से ही सतुष्ट होंगे ?"

महाराज,--"केवल परिचय से ही नहीं, परन तुम्हें एक उपयुक्त पुरस्कार प्रदान करने से।"

आगन्तुक,--"अच्छा, वह बात तो फिर होगी, पहिले यह तो बतलाइए कि आप हमें किस बात का पुरस्कार दिया चाहते हैं ?"

महाराज --'इस बात के लिये कि तुमने यवनो की उस काल- कोठरी की छत के रास्ते से हमें शस्त्र प्रदान किया और ठीक ठिकोने पर हमारे निज का घोडा तथा शस्त्रास्त्र भी दिया।"

आगन्तुक,--"तो क्या, इसके पूर्व, श्रीमान् ! आपने मुझे और भी कभी देखा है ?

महाराज,--(कुछ देर तक सोच कर) "हमें तो कुछ स्मरण नहीं होता कि और तुम्हें कहां और किस अवस्था में हमने देखा होगा!"

आगन्तुक,--" अच्छा, मै श्रीमान् को स्मरण कराए देता हूं। बादशाही दूत के पास जो आपके नाम का पत्र था,उसके मारे जाने पर उस पत्र को आपके पास मैनेही पहुंचाया था। हां, यह ठीक है कि उस समय मै दूसरे वेश मे था,जिससे आपका यह कहना ठीक है।"

मदाराज,--(अत्यन्त आश्चर्यित हो कर ) “ऐं! क्या वह व्यक्ति, वह आश्चर्यमय व्यक्ति-तुम्ही हो ! और तुम्हींने किसी गुप्तमार्ग से हमारे शयनागार में पहुंच कर उस पत्र को हमारे पर्यक पर डाल दिया था ?"

आगतुक,--(मपनी प्रसन्नता की हसी रोक कर)"हां श्रीमान् !" इतना सुनतेही महाराज ने अपने घोड़े को उस आगन्तुक के - घोड़े के पास भिडा दिया और चाहा कि उस आगन्तुम्क को घोड़े पर चढ़े चढ़े ही गले लगा ले, कि उस (आगन्तुक) ने ऐड देकर अपने घाड़े को कुछ अलग कर लिया और अभिवादन करके कहा,-

"श्रीमान् दास(मै)इस योग्य नहीं है कि आप उसे इतना बहुमान दें।"

(११)