महाराज,--"प्यारे,युवक तुमने अपना परिचय दिए बिनाही हमें बिना मूल्य ख़रीद लिया! माह ! हम अब संसार में ऐसा कोई पारितोषित तुम्हारे लिये नही ठीक कर सकते कि जो तुम्हारे इतने उपकारों के शताश काभौ शताश हो क्योंकि हम अपना सारा राज्य या अपने प्राण देकर भी तुम्हारे उपकारों का प्रत्युपकार नही कर सकते!"
आन्गतुक,--"श्रीमान ! आप अपना जी इतना छोटा क्यों करते हैं? मैं तो केवल आपको थोड़ीसी दया का भिखारी हूं और आपकी चरणसेवा के अतिरिक्त और मेरी कोई अभिलाषा नहीं है !"
महाराज,--"वोर,युवक! तुम्हारे कार्यकलाप हमे आश्चर्यसमुद्र में डाले हुए है कि तुम कौन महापुरुष हो ! और ऐसे ऐसे असाध्य साधन तुमने किस अलौकिक शक्ति के द्वारा किए ? अस्त; तो तुम हमसे क्या चाहते हो ! स्पष्ट कहो। हम क्षत्रिय हैं और तल्वार को स्पर्श कर के इस बात की शपथ खाते हैं, कि जो तुम हमसे मांगोगे, बिना बिचारे हम तुम्हें देदेंगे।"
इतना सुनते ही संभव था कि वह आगन्तुक व्यक्ति मारे प्रसन्नता के मूर्छित होकर घोडे पर से गिर पडे, परन्तु बड़ी कठिनता से उसने अपने को सम्हाला और आत्मसंयम करके मुस्कुराते हुए कहा,-"श्रीमान ! आपनं बिना सोचे बिचारे ऐसी शपथ क्यों की ! अब यदि मैं कोई ऐसी वस्तु आपसे मागू, जिसे आप देसकने पर भी न देसके, तो क्या होगा ?"
महाराज,--"प्यारे, मित्र! हम क्षत्रिय हैं और शपथपूर्वक जो कुछ प्रतिज्ञा हमने की है, प्राण रहते उससे हम टलनेवाले नहीं हैं। तुम चाहे हमारा राज्य या हमारा सिर अथवा हमारा सर्वस्वही क्यों न मागलो, पर निश्चय जानो कि जो कुछ तुम हमसे चाहोगे, यदि वह वस्त हमारे अधिकार मे होगी तो हम बिना सोचे-विचारे तुम्हारे हवाले करेंगे । अब कहो, दयाकर कहा,तुम हमसे क्या चाहने हो?"
आगन्तक,--(मनही मन अत्यन्त प्रसन्न होकर ) " श्रीमान् ! आप दीर्घजीवी हों, आपका राज्य आपही को मुबारक रहे, मैं तो केवल एक अदनी वस्त आपसे चाहता हूं।"
महाराज,--(आतुर होकर ) " प्यारे युवक ! अब शोध कहो, तुम हमसे क्या चाहते हो?"