पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८)

जो मुझे पहचानता था। उसे मुझ पर दया आई। वह १० [१]*दीनार देकर मुझे क़ैद से छुड़ा कर अपने, घर लेगया और कुछ दिनों के बाद अपनी लड़की से मेरा निकाह कर दिया। वह स्त्री दुष्टा थी। मेरा आदर-सत्कार तो क्या करती, एक दिन क्रुद्ध होकर बोली "क्यों साहेब, तुम वही हो ना जिसे मेरे पिता ने १० दीनार पर ख़रीदा था। मैं ने कहा, "जी हां, में वही लाभकारी वस्तु हूं जिसे आपके पिता ने १० दीनार पर ख़रीद कर आपके हाथ १०० दीनार पर बेच दिया।" यह यही मसल हुई कि एक धर्मात्मा पुरुष किसी बकरी को भेड़िये के पंजे से छुड़ा लाया। लेकिन रात को वही बकरी उसने ख़ुद वध करडाली।

(४) मुझे एक बार कई फ़क़ीर साथ सफ़र करते हुए मिले। मैं अकेला था। उनसे कहा कि मुझे भी साथ ले चलिये। उन्होंने स्वीकार न किया। मैंने कहा कि यह रुखाई साधुओं को शोभा नहीं देती। तब उन्होंने जवाब दिया, नाराज़ होने की बात नहीं, कुछ दिन हुये एक बटोही इसी तरह हमारे साथ हो लिया था। एक दिन एक किले के नीचे हम लोग ठहरे। उस मुसाफ़िर ने आधी रात को हमारा लोटा उठाया कि लघुशंका करने जाता हूं। लेकिन खुद ग़ायब हो गया। यहांतक भी कुशल थी। लेकिन उसने क़िले में


  1. एक सोने का सिक्का जो लगभग २५) के घराबर होता है।