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लोग चले गये तो पुजारी ने हंस कर मुझसे कहा क्यों अब तो कोई शंका नहीं रही? मैं कृत्रिम-भाव बना कर रोने लगा और लज्जा प्रगट की। पुजारियों को मुझ पर विश्वास होगया। मैं कुछ दिनों के लिए उनमें मिल गया। जब मन्दिरवालों का मुझपर विश्वास जम गया तो एक रात को अवसर पाकर मैंने मन्दिर का द्वार बन्द कर दिया और मूर्ति के सिंहासन के निकट जाकर ध्यान से देखने लगा। वहां मुझे एक परदा दिखाई पड़ा जिसके पीछे एक पुजारी बैठा हुआ था। उसके हाथ में एक डोर थी। मुझे मालूम हो गया कि जब यह उस डोरे को खींचता है तो मूर्ति का हाथ उठ जाता है। इसी को लोग दैविक बात समझते हैं।
यद्यपि सादी मिथ्यावादी नहीं थे तथापि इस वृत्तान्त में कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर नहीं कसी जा सक्तीं। लेकिन इतना मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिये कि सादी गुजरात आये और सोमनाथ में ठहरे थे।