पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३७)


किसी बादशाह ने एक ईश्वर-भक्त से पूछा कि कभी आप मुझे भी तो याद करते होंगे। भक्त ने कहा, हाँ, जब ईश्वर को भूल जाता हूं तो आप याद आ जाते हैं।


एक बादशाह ने किसी विपत्ति के अवसर पर निश्चय किया कि यदि यह विपत्ति टल जाय तो इतना धन साधु सन्तों को दान कर दूंगा। जब उसकी कामना पूरी हो गई तो उसने अपने नौकर को रुपयों की एक थैली साधुओं को बाँटने के लिए दी। वह नौकर चतुर था। संध्या को वह थैली ज्यों की त्यों दर्बार में वापस ले आया और बोला, दीन बन्धू, मैंने बहुत खोज की किन्तु इन रुपयों का लेने वाला कोई न मिला। बादशाह ने कहा तुम भी विचित्र आदमी हो, इसी शहर में चार सौ से अधिक साधु होंगे। नौकर ने विनय की कि भगवन् जो सन्त हैं वह तो द्रव्य को छूते नहीं और जो माया सक्त हैं उन्हें मैं ने दिया नहीं।


किती महात्मा से पूछा गया कि दान ग्रहण करना आप उचित समझते हैं वा अनुचित? उन्होंने उत्तर दिया कि यदि उस से किसी साकार्य की पूर्त्ति हो तब तो उचित है, यदि केवल संग्रह और व्यापार के निमित्त हो तो अत्यन्त अनुचित है।