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पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/४३

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एक साधु किसी राजा का अतिथि हुआ। जब भोजन का समय आया तो उस ने बहुत अल्प भोजन किया। लेकिन जब नमाज़ का वक्त आया तो उसने खूब लंबी नमाज़ पढ़ी। जिस में राजा के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो। वहाँ से विदा हो कर घर पर आये तो भूख के मारे बुरा हाल था। आते ही भोजन माँगा। पुत्र ने कहा पिता जी क्या राजा ने भोजन नहीं दिया। बोले भोजन तो दिया किन्तु मैंने स्वयं जान बूझ कर कुछ नहीं खाया जिस में बादशाह को मेरे योगसाधन पर पूरा विश्वास हो जाय। बेटे ने कहा, तो भोजन करके नमाज़ भी फिर से पढ़िये। जिस तरह वहाँ का भोजन आप का पेट नहीं भर सका, वैसे ही वहाँ की नमाज़ भी सिद्ध नहीं हुई।

[३] तीसरे प्रकरण में सन्तोष की महिमा वर्णन की गई है। सादी की नीति शिक्षा में सन्तोष का पद बहुत ऊँचा है। और यथार्थ भी यही है। सन्तोष सदाचार का मूल मन्त्र है। सन्तोषरूपी नौका पर बैठ कर हम इस भवसागर को निर्विघ्न पार कर सक्त हैं।


मिश्र देश में एक धनवान मनुष्य के दो पुत्र थे। एक ने विद्या पढ़ी, दूसरे ने धन संचय किया। एक पण्डित हुवा, और दूसरा मिश्र का प्रधान मन्त्री कोषाध्यक्ष। इस ने अपने विद्वान् भ्राता से कहा, देखो मैं राजपद पर पहुंचा