पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/५२

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[८] आठवें प्रकरण में सादी ने सदाचार और सद्‌व्यवहार के नियम लिखे हैं। कथाओं का आश्रय न लेकर खुले खुले उपदेश किये हैं। इस लिये सामान्य रीति से यह अध्याय विशेष रोचक न हो सकता था, किन्तु इस कमी को सादी ने रचना सौन्दर्य से पूरा किया है। छोटे छोटे वाक्यों में सूत्रों की भांति अर्थ भरा हुआ है। यह प्रकरण मानों सादी के उपदेशों का निचोड़ है। यह वह उपवन है जिसमें राजनीति, सदाचार, मनोविज्ञान, समाजनीति, सभाचातुरी में रङ्ग-बिरङ्गे पुष्प लहलहा रहे हैं। इन फूलों में छिपे हुए कांटे भी हैं, जिन में यह अद्भुत गुण है कि वह वहीं चुभते हैं जहां चुभना चाहिये—गेरुवे वाने की आड़ में, छिपी हुई स्वार्थान्धता में, उपाधियों के नीचे छिपी हुई मूर्खता में, उन हाथों में जो सलाम को उठते हैं, लेकिन दोनों के उठाने को नहीं उठते, उन हृदयों में, जहां सारे संसार की अभिलाषाओं के लिए स्थान है किन्तु प्रेम और दया के लिए नहीं। संसार में कुछ ऐसे उपदेशक होते हैं जो धन को अत्याचार का यंत्र और धनी को समाज का शत्रु समझते हैं। उनमें एक प्रकार की ईर्षा होती है जो सुख और सम्पत्ति को देख कर तृणवत् जल उठती है। ऐसे उपदेशकों को cynic षरछिद्रान्वेषी कहते हैं। सादी cynic नहीं है। वह ईर्षालु हृदय से उपदेश नहीं करता। उसका हृदय शीतल, कोमल और मधुर है। वह धन का भूका नहीं, लेकिन धन की निन्दा भी नहीं करता।