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पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/५४

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यदि कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे तो तुम को उससे अधिक सचेत रहना चाहिये। जब मित्र की सच्चाई का ही भरोसा नहीं तो शत्रुओं की खुशामद का क्या विश्वास!


यदि किन्हीं दो दुश्मनों के बीच में कोई बात कहो तो उस भांति कहो कि अगर वे फिर मित्र हो जायें तो तुम्हें लज्जित न होना पड़े।


जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है वह अपने मित्र का शत्रु है।


जब तक धन से काम निकले तब तक जान को जोखिम में न डालो। जब कोई उपाय न रहे तो म्यान से तलवार खींचो।


शत्रु की सलाह के विरुद्ध काम करना ही बुद्धिमानी है। अगर वह तुम्हें तीर के समान सीधी राह दिखावे तो भी उसे छोड़ दो और टेढ़ी राह जाओ।