पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(७०)

अमी पियावत मान बिन, रहिमन हमें न सुहाय।
प्रेम सहित मरिबो भलो, जो विष देइ बुलाय॥




आनांकि ग़नीतरन्द मुहताजतरन्द।
धन के साथ साथ तृष्णा भी बढ़ती जाती है।




हर ऐब कि सुल्तां बेपसन्दद हुनरस्त।

यदि राजा किसी ऐव को भी पसन्द करे तो वह हुनर हो जाता है।


हाजते मश्शाता नेस्त रूय दिलाराम रा।
सुन्दरता बिना शृंगार ही के मन को मोहती है॥

स्वाभाविक सौन्दर्य्य जो सोहे सब अंग माहिं।
तो कृत्रिम आभरन की आवश्यकता नाहिं॥




परतवे नेकां न गीरद हरकि बुनियादश बदस्त।

जिसकी प्रकृति अच्छी नहीं उस पर सज्जनों के सत्संग का कुछ असर नहीं होता।