- जायगा, तो बायें हाथसे कातना शुरू कर देगा और यह पन्थ चल पड़ेगा।" बापू " मालूम तो होगा ही, अबकी बार लिखूगा । " वल्लभभाभी. जरा गम्भीर होकर - "अिससे तो यही अच्छा था कि बच्चोंको ही दोनों हाथसे चरखा चलाना सिखाया होता ।" बापू बोले "ठीक बात है । जापानमें तो बच्चोंको दोनों हाथ काममें लेना सिखाया ही जाता है।" नारणदासभाीको पत्र लिखा। असमें नये प्रयोगकी अत्पत्तिका वर्णन किया, और अससे पैदा होनेवाले विचार बताये। और सलाह दी कि आश्रममें जिनसे हो सके, वे दायें बायें दोनों हाथ रोजकी अनेक क्रियाओंके लिओ अिस्तेमाल करें। आसामसे ६१ वपके अक बूढ़ेने अपने काते और अपने बुने हुओ बारीक कपड़ेका टुकड़ा बापूके पहननेके लिझे भेजा है । अिस तरहके कितने ही भक्त देशके कोने कोने में विद्यमान होंगे।
पुरुषोत्तमने राजकोटसे अक लम्बा खत लिखकर तीन सवाल पूछे थे : (१) जैन दर्शन के निरीश्वरवाद और गीताके अीश्वरवादके भेदके विषयमें। (२) औश्वरमें कर्तृत्व न हो तो कृपा करनेवाला कौन ? भक्ति करनेवालेके लिओ ओश्वरकृपाके बिना श्रद्धाका आलम्बन और है ही क्या ? मनुष्यकी प्रार्थना मनुष्यकी शुभेच्छा ही है या अससे ज्यादा और कुछ ? (३) सत्य ही ओश्वर है, बापूकी अिस व्याख्याका रहस्य । असे बापूने विस्तारसे अत्तर दिया : १. जैन निरूपण और साधारण वैदिक निरूपणके बीच मैंने विरोध नहीं पाया, मगर केवल दृष्टिकोणका ही फर्क है । वेदका अीश्वर कर्ता-अकर्ता दोनों है। सारा जगत् औश्वरमय है, अिसलिमे ीश्वर कर्ता है। मगर वह कर्ता नहीं है, क्योंकि वह अलिप्त है । असे कर्मका फल भोगना नहीं पड़ता । और जिस अर्थमें हम कर्म शब्द अिस्तेमाल करते हैं, अस अर्थमें जगत जीदवरका कर्म नहीं है । गीताके जो श्लोक तूने अद्धृत किये हैं, उनका अिस तरह सोचने पर मेल बैठ जाता है । जितना याद रखना : गीता अक काव्य है । अीश्वर न कुछ बोलता है, न करता है। श्रीश्वरने अर्जुनसे कुछ कहा हो, सो बात नहीं है । मीदवर और अर्जुनके बीचका संवाद काल्पनिक है । मैं तो असा नहीं मानता कि अंतिहासिक कृष्ण और अतिहासिक अर्जुनके बीच असा संवाद हुआ था । गीताकी शैलीमें कुछ भी असत्य है या अयुक्त है, सो भी नहीं । अिस तरहसे धर्मग्रंथ लिखनेका रिवाज था । और आज भी कोजी संस्कारी व्यक्ति लिखे, तो असमें कोी दोष नहीं माना जा सकता । जैनोंने केवल न्यायकी, काव्यरहित १०४