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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/११४

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किसीसे रुपया लेकर भी प्रकाशित नहीं की थी। अिसमें असने अंग्रेज अितिहासकारोंकी छिपाी हुी बातोंको प्रगट किया है । और यह लिखा है कि अंग्रेजों के किये हु पापके प्रायश्चित्तके रूपमें हिन्दुस्तानको आज़ादी मिलनी चाहिये । अिस किताव परसे अंग्रेज असपर खुब बिगड़े हैं। यह आदनी अप्रामाणिक नहीं है, मार रहस्यमय है, समतोल रहित है । आज मुझे गालियाँ देगा, कल मेगे बड़ाी करेगा। आज जयकरको चबायेगा, तो कल अतार फेंकेगा । अिसके सायकी बातचीतमें भी मुझ पर यही छाप पड़ी थी।" नानामाीको लिखा गया पत्र अिस डायरीमें पहले आ चुका असके अत्तरमें अन्होंने लम्बा पत्र लिखा " आपकी राय माननेका मन होता है। मगर हिम्मत नहीं होती । थोदी देरके लिखे जी भी नहीं मानता। दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवनके लिअ भिक्षा माँगू तो क्या हर्ज ? मेरा यह भाग दान माना जायगा । आप भी तो दरिद्रनारायणके लिझे भीख माँगने निकले थे । मगर मेरी समझमें भूल हो सकती है । मुझे ज़रूर रास्ता बताअिये। अिसके जवाबमें बापूने लिखाया ." मुझे जो डर था, वही परिणाम हुआ है । मैं दरिद्र- नारायणके लिजे भटका, जिसमें तुम्हें मेरी सलाहके साथ असंगति दिखाी दी। तुम असंगति देखोगे मुझे यह अन्देशा था। मगर मुझे असंगति दिखाओ नहीं दी। जब दौरे पर निकला था, तब भी मुझे औसी कोभी बात नहीं लगी थी। फर्क यह है : दक्षिणामूर्ति तुम्हारी संस्था कहलाती है, जैसे आश्रम मेरी संस्था है। दक्षिणामूर्तिमें तुम्हारा काम रुपया अिकट्ठा करना नहीं है बल्कि पढ़ाना, विद्यार्थियोंमें अपनी आत्माको अँडेल देना है । आश्रममें मेरा कर्तव्य रुपया लाना नहीं, नियमोंका पालन करके आश्रमवासियोंसे पालन कराना और आश्रमकी विविध प्रवृत्तियोंको पुष्ट करना है । असा करनेसे आवश्यकतानुसार रुपया आ जायगा, यह श्रद्धा रखनी चाहिये । दरिद्रनारायणके कोषके लिओ अिससे अलटा कानून है । अिसमें तो वृत्ति ही कोष जमा करनेकी है । दक्षिणामूर्तिके लिओ तुम नहीं जा सकते। मगर मित्र लोग शोकसे माँगें । माँगना सुनका धर्म है । अब भेद समझमें आया ? यह भेद आजका नया नहीं है । दक्षिण अफ्रीकामें भी मैं अिसी भेदके अनुसार चलता था । यानी शान होने पर फिनिक्सके लिओ भिक्षा बन्द कर दी । मगर वहाँकी जो लोक-संस्थायें चल रही थीं, अनके लिओ मैं घर घर भटका था । अिसलि मेरा तो अब भी यही कहना है कि तुम्हें आज नहीं तो कल निश्चय कर लेना चाहिये कि रुपया अगाहनेके लिओ तुम नहीं जा सकते । मदद करनेवाले मित्रोंको जानते हो । अन्हे पत्र लिखो और निश्चय बता दो, और फिर जो कुछ होना हो, होने दो। असी संस्थाओंकी अभी तक लोगोंमें कदर नहीं, लोग अपने आप अिन संस्थाओंको दान भेजनेका - १११