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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१४७

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- - बहनोंके पत्र आते ही जाते हैं । अिस बार भक्तिबहनका पत्र बा । वहर्ने तत्व चर्चा भी खासी कर लेती हैं। गीताकी विद्यार्थिनी अक बहनने पूछा- "जैसा कहा जाता है कि गीतामें अपने परायेका भेद न करनेका झुपदेश है । मगर कर्तव्यपालन करनेमें हिंसा-अहिंसाका भेद तो करना ही चाहिये ! पूर्णावतार मारनेकी सलाह दे ही कैसे सकता है ? दुनियाका भला चाहनेवाला हिंसात्मक लड़ाीको खुब धिक्कारता है और हिंसात्मक लहामीसे अिन्सान अिन्सान न रहकर हैवान बनता है। फिर भी गीतामें लड़ाीका अपदेश कैसे है ?" बापूने लिखा "कर्तव्यका निश्चय करते समय बहुतसे प्रश्न झुठ सकते हैं । परन्तु गीताका निरीक्षण करते वक्त तो अितना ही विचार करना है कि प्रश्न करनेवालेका प्रश्न क्या था ? प्रश्नसे बाहर जाकर जो शिक्षक अत्तर देने लगे, वह अनाड़ी कहा जायगा; क्योंकि पूछनेवालेका ध्यान तो अपने सवालमें ही रहेगा, और दूसरा कुछ सुननेकी असकी तैयारी नहीं होती। असमें योग्यता न हो तो असे अरुचि हो जायगी । और जिस तरह अनाजका पौदा आसपास झुगे हुआ घासमें दब जाता है, वैसे ही अस सवालके जवाबकी अिधर अधरके विवादमें दव जानेकी सम्भावना रहती है । जिस दृष्टिसे कृष्णका जवाव परिपूर्ण है । और जब पहला अध्याय छोड़ कर हम दूसरेमें प्रवेश करते हैं, तो असमेंसे खालिस अहिंसा ही टपकती है । कृष्णको पूर्ण अवतार मान कर या मनवा कर हमें यह आशा नहीं रखनी चाहिये कि जैसे किसी शब्दकोषमें शब्दोंका अर्थ मिल जाता है, वैसे ही हमारे मनमें जो जो प्रश्न अटें झुनका अर्थ सुनके वचनों से सीधा मिल जायगा । जिस तरह मिल भी जाता हो, तो अससे नुकसान ही होगा । फिर तो मनुष्यके लिझे आगे बढ़नेकी बात ही नहीं रह जाती, खोज करनेकी गुंजायश ही बाकी नहीं रहती । असकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है । अिसलि मनुष्यों को अपने अपने समयकी समस्याों खुद ही बड़े प्रयत्नसे और तपश्चर्या करके हल करनी पड़ेंगी । अिसलिमे अभी हमारे सामने लड़ामी वगैरा के प्रलोंके बारेमें जो कठिनाजियों आती हैं, उनका निराकरण हम गीता-जैसे संस्कारी प्रन्यमें पाये जानेवाले सिद्धान्तोंकी मददसे करते हैं। सच पूछा जाय तो यह मदद भी बहुत थोड़ी ही मिल सकती है। असली सहायता तो तपश्चर्यासे होनेवाले अनुभवसे ही मिलती है । आयुर्वेदमें औषधियों के अनेक गुण बताये गये हैं । रास्ता बतानेके लिओ हम सुन औषधियों और सुनके गुणों को जानें यह ठीक है । मगर वह दवा अनुभवकी कसौटी पर खरी न झुतरे तो हमारा ज्ञान बेकार है। अितना ही नहीं, वह मार भी बन सकता है । ठीक अिसी तरह हमें हिन्दगीके बारीक सवाल भी हल करने है । अब यिस विषयमें और कोमी. यात पृटनेको रही हो तो पूछ लेना ।" १४४