और वह कदाचित जानयूझ कर मरनेको तैयार हो जाय । लेकिन छुटपुट खून हों, लूट हो तो उसमें क्या हो सकता है ?" बापू -" असमें भी यही हो । आज यह बात किसीके गले नहीं झुतरती कि अिस तरहके छुटपुट खुन हों, तो हम जानबूझकर प्रतिकार न करें । भिसलि मेरी सलाह बेकार है । मुझसे कुछ न हो सके, तो जिससे अड़चन नहीं आती। लेकिन मेरी अहिंसाकी सलाह तुम्हारे गले न झुतरे, तो यह मेरी कमजोरी है । जिस अहिंसाका अपने आप असर होना चाहिये और यदि न होता हो तो अतनी ही वह कच्ची है । भितने पर भी समाज सलाहके लिझे मेरी तरफ देखे, तो यह बड़ी करुण दशा है। यह तो समाजके लिओ साँप-छदरकी-सी हालत हुी । मैं न हो तो समाजको कुछ न कुछ सूझ पड़े और मेरा रहना समाजके लिो वाधक है, यह हालतमें अनशन ही मेरे लिझे अकमात्र अपाय हो सकता है । मगर मुझे यह नहीं लगा कि असा करना चाहिये । बाहर होता -और बम्बभीमें ही होता- तो शायद अनशन शुरू भी कर दिया होता।" मैंने कहा अन्दर हैं यह अक तरहसे भीश्वरकी कृपा ही है ? बापू "अक तरहसे क्यों १ कभी तरहसे । हम बाहर होते तो क्या कर लेते ? कुछ नहीं कर सकते थे ।" मैंने कहा . “ अब तो भीतर भीतरकी लड़ाी खुले तौर पर फूट निकले तो आश्चर्य नहीं ।" वापू कहने लगे - " नहीं । कोहाटमें हुी ही थी न ? और विलायतमें क्या हुआ ? मैंने मुसलमानोंकी तरफसे जो जो अपमान सहन किये हैं, जो कड़वी बूटे पी हैं, वह किससे कहूँ ?" आज रेहाना बहनको पत्र लिखते हुओ लिखा "तुम सबको आवृकी आबहवासे फायदा हुआ होगा ? अब्बाजान पढ़ते हैं ? वहाँ तो बिलकुल जवान हो गये होंगे ? बम्बीके पागलपनने हमारे नाचरंग सब भुला दिये हैं। मैं समझ ही नहीं सकता कि धर्मके नाम पर अिन्सान अिन्सानके साथ कैसे लड़ सकता है । मगर मैं मनको और कलमको रोकता हूँ। अभी तो यह जहरके प्याले पी रहा हूँ।" " तो हम - आज बापूने सारे दिन पत्र लिखे । कलम बनाकर झुकी कापी लिखना शुरू किया और कलमसे ही पत्र लिखे । मुझे पूछने २२-५-३२ लगे " सन् १७-१८में हम कलम काममें लेते थे। कुछ मालूम है फिर हमने असे बन्द कैसे कर दिया ?" मैंने थोड़ा अितिहास सुनाया । होल्डर गाड़ीमेंसे फेंक दिया था, चैम्सफोर्डको सारे पत्र कलमसे ही लिखे गये थे, वगैरा-और बादमें मुसाफिरी बढ़ गयी और हमेशा स्याहीसे ही लिखना जरूरी होनेके कारण पेन शुरू हुआ । सतीशबाबूने बापकों १६४
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