पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२३५

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रूपका आनंद लेकर असीसे कृतकृत्य होते हैं। अन्हें जिससे परे और किसी तत्वका भान नहीं होता। क्या आप मानते हैं कि कलाकी कलाके लिअ ही आराधना की जा सकती है ? और की जा सकती हो, तो क्या वह वांछनीय है ? "आपकी रचनाओंमें औश्वरका नाम बहुत बार आता है और मुझे जैसा लगा है कि प्रार्थनाका अिस जीवनमें बहुत बड़ा हाय रहता है । अिस शन्दसे आपके मनमें क्या कल्पना होती है ? मीश्वर शक्ति है या अिस. दृश्य जगतसे परे कोभी तत्व है या क्या है ! और आप औश्वरको मानते हैं तो किस लि? श्रद्धा या ज्ञान या भक्ति या जीवनमें किसी जैसे ही ध्येयकी जरूरतके लि?" बापुका जवाब बापूकी सारगर्भित मिताक्षरी शैलीका नमूना है । भारतीके अक अक सवालका असमें जवाब आ जाता है । मगर असमें बहुत कुछ अध्याहार भी रह गया है : यह प्रश्न तो खड़ा ही है कि कला किसे कहें । मगर यह भी तो सवाल है कि सौन्दर्य किसे कहा जाय ? अनन्त आकाशके वेशुमार सूरज, चाँद और तारे हमारे हाथमें आ नहीं सकते; निरन्तर ज्ञान-गंभीरतामें झुमड़ता हुआ समुद्र हायमें तो आता ही नहीं, मगर हमें यह भान कराता है कि अिस विश्वमें असकी अक बूंदके भी करोड़वे भाग जैसे अक परमाणुके वरावर हम हैं । बर्फसे ढंके हुओ भन्य पहाड़ों और नदियों सौन्दर्य भरा है। यह सौन्दर्य मूढ़ मनुष्यके सिवा औरों पर तो अक खास तरहका अन्नत बनानेवाला असर डाले बिना रहता नहीं। यह सौन्दर्य असा असर अिसलिञ डालता है कि वह परिग्रह और अपभोगके क्षुद्र भावोंसे अवाधित है। कैण्ट कहता है न: Beauty gives us pleasure from the mere contemplation thereof, apart from the vulgar ideas of possession and use. "परिग्रह और अपभोगके स्थूल विचारोंको छोड़कर, सौन्दर्यके सिर्फ चिन्तनसे हमें आनन्द मिलता है।" मिसी लिओ वह शान्तिप्रद है, अन्नतिप्रद है। यही बात कला और कलाके पात्रोंकी है । कला सिर्फ आत्माकी कला है, मात्माकी परछाभी है। अिसलिमे मी आत्मा वैसी कला । आत्माका जैसा रूप, रस और गंध, वैसा ही कलाका भी। रूप, रस और गंघ भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं हैं। केवल रूप, रस और गंघसे कृतार्थ होनेवाले पीटर वेल तो बहुत होंगे, हैं, मगर असमें कृतार्थता नहीं है । कलाके लि. कलाकी आराधना न कलाकार कर सकता है और न कलाको मोगनेवाला कर सकता है। कलाकारकी. आत्माकी परछाओं कला पर पड़ेगी; सौर फाको भोगनेवाला तो जैसी कला होगी, सुसीके अनुसार चोगा या गिरेगा। -सबमें अटूट