पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२३७

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जाय ? शायद यह ठीक हो । अिन्सानको दरवाजेके भीतर ले आये कि फिर असके साथका वर्ताव असके अन्दरके व्यवहार और रहनसहन पर निर्भर करता है । असके किये हु अपराध पर क्यों आधार रखा जाय ? फिर भी काली टोपी और पीली टोपी वगैरा तो अिन लोगोंको अलग कर ही देती हैं।

बिड़लाकी सिक्के पर लिखी गयी पुस्तक पढ़ते पढ़ते बापू कहने लगे "बड़ी चोरी चोरी नहीं, बड़ी लूट लूट नहीं, बड़े पैमाने पर हत्याकाण्ड धर्मयुद्ध । देशका सोना लूटा, सुख लूटा, धन खींचे लिये जा रहे हैं। अिससे सन्तोष न हुआ, तो सिक्कोंके विनिमयके बढेका जाल रचा। अससे भी तसल्ली नहीं हुी, तो रिज़र्व लूट लिया । दुनियामें मेक भी देश भिस तरह लूटा और मारा नहीं गया होगा। मुहम्मद गजनवी अक बार लूट कर चला गया। मुगलोंने लूटा होगा, तो वह देशमें ही रहा मगर यह लूट !!" डोअीलके आ जाने और असके तुरत माँग मंजूर कर लेनेसे मेजरको कुछ आश्चर्य हुआ। लेकिन डोअीलने जो मुद्दामाल बताया था और १५-६-३२ जिसके लिभे हमने अन्दाज लगाया था और मान लिया था कि मेजर असे दे आये होंगे, उसके लिअ असकी बातचीतसे पता चला कि वह मेजर नहीं दे आये थे, बल्कि वह दूसरे ही किसी जेलका या। बापू कहने लगे "देखो, हमने अिस आदमीके साथ फिर अन्याय किया है । किसी आदमीके बारेमें तुरत फैसला देने लग जाना खतरनाक बात है।" जो समय समय पर अपयोगी होने पर भी व्यर्थसे और कुतुहलसे पैदा होनेवाले सवाल पूछता है, असे बापूने पत्रमें लिखाः " तुम्हारी तरह दूसरोंने भी मान रखा है कि मैं संयमी और प्राचारी जीवन विताता हूँ, अिसलि मुझे तो दीर्घायु होना ही चाहिये । सच पूछा जाय तो मेरे बारेमें यह खयाल ठीक नहीं है, या यों कहो कि दूसरों के साथ तुलना करनेसे ही थोडा बहुत ठीक माना जा सकता है । लगभग ३० वर्षकी अम्र तक तो मैने विषयसेवन किया ही या । यह भी दावा नहीं किया जा सकता कि खानेपीने की चीजोंका संयम था। सिर्फ स्वादके लिअ में की चीजें खाता था। फिर धीरे धीरे जीवनप्रवाह संयमकी तरफ चला । जिसका भी यह अर्थ तो नहीं किया जा सकता कि मैं जितेन्द्रिय बन गया । अितना ही दावा कर सकता हूँ. कि मिन्द्रियोंकों वसमें रखना सीख गया । जिस तरह विषयों वगैराका जो असर गरीर पर होना या, वह तो हो ही चुका था। असमें जितना संयम मिल गया, अतना वह असर कम हो गया। मगर दूसरे समकालीन, जो जितना भी संयम