- मिच्छा अिस जन्ममें पूरी न हो । और अिस तरहका अनुभव हमें रोज होता है । मगर अिस अिच्छाको लेकर जीव देहको छोड़ता है और दूसरे जन्ममें अिस जन्मकी अपाधियाँ कम होकर यह अिच्छा फलती है या ज्यादा मजबूत तो होती ही है । जिस तरह कल्याणकृत लगातार आगे बढ़ता ही रहता है । " ज्ञानेश्वर महाराजने निवृत्तिनाथके जीते हुझे सुनका ध्यान घरा हो तो भले ही धरा हो। लेकिन अितना होने पर भी मेरी पक्की राय है कि वह हमारे नकल करने लायक नहीं है । जिसका ध्यान करना है वह पूर्णताको पाया हुआ व्यक्ति होना चाहिये । जीवित व्यक्तिके लिअ अिस तरहका खयाल करना बिलकुल बेजा और गैरजरूरी है । लेकिन यह हो सकता है कि ज्ञानेश्वर महाराजने शरीरधारी निवृत्तिनाथका ध्यान न घरा हो और अपनी कल्पनाकी पूर्णताको पहुँचे हुओ निवृत्तिनाथका ध्यान किया हो । मगर हम अिस झगड़ेमें कहाँ पड़ें ? और जब जीवित मूर्तिका ध्यान करनेका सवाल अठता है, तब कल्पनाकी मूर्तिकी गुंजायश नहीं रहती । और अिसका अल्लेख करके जवाब दिया हो तो अिस जवाबसे बुद्धिभ्रंश होना संभव है । " पहले अध्यायमें जो नाम दिये हैं, वे सब नाम मेरी रायमें व्यक्तिवाचक होनेके बजाय गुणवाचक ज्यादा हैं । दैवी और आसुरी वृत्तियोंके बीचकी लड़ाीका वयान करते हुओ कविने वृत्तियोंको मूर्तिमान बनाया है । अिस कल्पनामें अिस बातसे अिनकार नहीं किया गया है कि पाण्डवों और कौरवोंके बीच हस्तिनापुरके पास सचमुच युद्ध हुआ होगा। मेरी जैसी कल्पना है कि अस जमानेका कोअी दृष्टान्त लेकर कविने अिस महान ग्रंयकी रचना की है। अिसमें भूल हो सकती है । या ये सब नाम तिहासिक हों तो अतिहासिक आरम्भके लिओ ये नाम देना बेजा भी नहीं माना जा सकता । और विषय विचारके लिखे पहला अध्याय जरूरी है, अिसलिओ गीतापाठके वक्त असे पढ़ लेना भी जरूरी है । " किसीकी बनायी हुी पुनियोंसे कातना बेशक अधूरा यज्ञ है । यह हो सकता है कि अपंग होनेके कारण मेरे जैसा आदमी अपनी पूनियाँ न बना सके । मगर जिसमें ताकत है असे तो अपनी पूनिया आप ही बनानी चाहिये ।" मथुरादासका नासिकसे पत्र आया । वे लिखते हैं कि मैंने तलाकके समर्थनमें अक नाटक लिखा है, जो किशोरलालभाभीको पसन्द आया है । संतति नियमनकी जरूरत बतानेके लिअ अन्होंने यह दलील दी है कि ब्रह्मचर्य सबसे नहीं रखा जा सकता । पशुके साथ मनुष्यकी तुलना नहीं की जा सकती। पशु कहीं भी किसी भी समय विषय तृप्त कर लेता है । मनुष्य वैसा नहीं कर सकता, अित्यादि । अिसका अनर्थ हो अिसलि असे बुरामी नहीं कहा जा सकता; २२४
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