पूछा था शारदाने पूछा- " फर्क भी बता सकूँ। यह सब मैं साथियोंके बारेमें हुझे अपने अनुभव परसे तुम्हें वता रहा हूँ। अब अिस विषयको ज्यादा नहीं लम्बाशृंगा।" बालकोंके प्रश्नोंमें अिस बार भी अकाध बढ़िया प्रश्न था ही। मंगलाने शून्यवत् होकर रहनेके क्या मानी ?" असे बापूने लिखा 'शून्यवत् होकर रहनेका मतलब है अच्छा लेनेमें सबसे पीछे रहना। सबकी सेवा करना, अपकारकी आशा न रखना, और कष्ट सहन करनेमें दूसरोंकी पहल करना । जो अिस तरह शून्यवत् रहेगा, वह अपने कर्तव्यमें तो डूबा ही रहेगा।" मूलदासने विधवाको अपनी ब्याही हुभी स्त्री बताकर बचाया सो क्या ठीक था ? विधवाको बचानेके लिअ भी झूठ बोला जा सकता बाबा मूलदासने जो कहा बताते हैं, वह सच हो तो बुरा किया कहा जायगा। अिससे विधवाका भी बुरा हुआ। किसीका दुःख दूर करनेके लिओ भी झूठ नहीं बोल सकते । भिस तरह दुःख हरगिज नहीं मिटता ।" को धार्मिक वाचन भी छोड़नेकी सलाह दी थी । वे अस पर चल रहे हैं । अन्हें फिर लिखा " मैंने बताया है अस अपायका जैसे जैसे दिलसे झुपयोग करोगे, वैसे वैसे तुम्हारी शान्ति बढ़ेगी । पढ़े हुओका अदृश्य प्रभाव आश्चर्यजनक होगा । तुम अिस तरह रहना जैसे पहले कुछ पढ़ा ही न था । जितना पचा या हजम हुआ होगा, अतना अपने आप कार्यके रूपमें - फूट निकलेगा।" छगनलाल जोशीको लिखे गये पत्र में पचना' और 'जीर्ण होना' अिन दो शन्दोंका भेद बताया था । " पचनेवाला सब कुछ खुन वगैरामें नहीं बदलता, जब कि जीर्ण होनेवाला सब कुछ शरीरको बनानेवाले अनेक तत्वोंमें बदल जाता है । अिसी तरह पढ़ा हुआ जिर जाना चाहिये, जैसे खाद वृक्षमें जिर जाता है और नतीजा यह होता है कि अससे फल पैदा होता है।" दूधी बहनको "तुमसे जितना हो सके अतना ही करो। सुझसे दबकर या शरमाकर कुछ भी न करो । मुझे जो धर्म सूझा वह मैंने बताया है। मगर असका पालन तो शक्तिके मुताबिक ही हो सकता है। और जो मैं चाहता हूँ वह न हो तो अससे दुःखी होनेकी बात नहीं है। तुम दुःखी होगी, तो धर्म बताने में मुझे संकोच होगा ?" के तो हर हफ्ते सवाल रहते ही हैं। सवाल : बँधा हुआ कौन ? जवाव : जो 'मैं'को मानता है। (२) मुक्तिके क्या मानी ? ज० - रागद्वेष वगैरासे छूटना । (३) नरक क्या है ? ज० असत्य । (४) मुक्ति दिलानेवाली कौनसी चीज है ? ज० • अहिंसा । (५) मुक्तदशा कौनसी ?
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