मैंने वापूसे पूछा- .थोड़ा बापू कहने लगे. नाडकर्णीने रामराज्य पर अक टीकात्मक निबन्ध लिखकर असे बापके नाम लिखे पत्रका रूप दिया है। जिसमें रामचन्द्रके किये ३१-७-०३२ अधर्मों-~पालीका वध, शंबूकका संहार, सीताका निर्वासन और अिसी तरहकी कथाओं पर जिन्हें सनातनी हिन्दू अक्षरशः मानते हैं और जिनके कारण शूद्रों और स्त्रियोंको सताते हैं, अछूतों पर जुल्म करते हैं और अंत्यजों या शुद्रेतरोंको सुनके अधिकारोंसे वंचित रखते हैं, अिन सब पर कड़वे प्रहार किये हैं । कहीं कहीं अनका तीखापन मर्यादाको लाँघ जाता है । वह यहाँ तक कि किसी मिशनरी या मिस मेयोके हाथमें यह किताब पढ़ जाय, तो हिन्दूधर्म पर प्रहार करनेके लिभे असे ओक मजबूत लाठी मिल जाय । "अिसका जवाब देंगे ?" बापने कहा- लिखनेका विचार तो है।" मैंने कहा '-" लिखवाकर रखिये और बाहर निकल कर छपवा देंगे।" ." नहीं रे, भिस तरह लिखवाना मेरी शक्तिके बाहर है। मैं कहता हूँ कि मैं जो लिखता हूँ वह मैं नहीं लिखता, बल्कि मीवर लिखवाता है, सो अक्षरशः सच है। अपने 'यंग अिन्डिया के लेख पाता हूँ तो असा लगता है कि फिर लिखने बै? तो वैसा नहीं लिख सकता। वारडोलीके समयके गुजराती लेख आज में नहीं लिख सकता। हर चीजके लिखे वातावरण चाहिये । भिसलिभे असे छोटा-सा जवाब लिख भेजूंगा।" मैंने कहा 'यह तो कम ज्यादा मात्रामें बहुतोंके लिओ सही है । जिस आदमीको तन्मय होकर लिखनेकी आदत है, वह अक मौके पर और खास हालतमें जो लिखेगा वह दूसरे अवसर और परिस्थितिमें नहीं लिख सकेगा। लोजानमें आपने सत्य ही भीश्वर है' पर आधे घंटे तक जो व्याख्यान दिया था वह आज आपसे कहा जाय तो नहीं दे सकते, और फिर भी आज जिस विषय पर आप नया ही निरूपण कर सकते हैं।" जैसे मेरे सवाल के जवाबमें ही हो, अन्होंने आज ओक छोटी-सी लड़कीको लिखे पत्रमें ही नाडकर्णीको अत्तर दे दिया । लइकीने पूछा था कि “ मीराबाीके चमत्कार पुस्तकोंमें दिये हु न मानें, तो फिर उसके बारेमें और कोभी कहे तो क्या असे मान लें ? यदि पुस्तकोंकी बात न मानें, तो हमारे चीरों और वीरांगनाओंक बारेमें जाननेका साधन क्या है ?" असे जवाब देते हुओ लिखा--- " पुस्तकोंमें लिखा हुआ सब कुछ वेदवाक्य नहीं माना जा सकता। जो सदाचारके खिलाफ है और जो अमानुषी है, वह कहीं भी लिखा हो तो भी न माना जाय । सच झुठको तोलनेकी शक्ति जब तक हममें नहीं आती, तब तक पढ़ी हुी चीजके बारेमें जिन बुजुर्गों पर विश्वास हो अनका कहना मानना चाहिये।" -
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