पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/४१२

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तो जिसमें पूरी तरह दया है और असके दिल पर भी भिसका असर पड़े बिना नहीं रह सकता।" अितना छोटासा किस्सा बापू और वल्लभभाभीकी मनोवृत्तियोंका भेद बतानेके लिअ काफी है । आज ‘संकट आने पर लड़कियों क्या करें लेख लिखा और मुझे और वल्लभभाभीको ध्यानसे परकर असमें कोसी बात चर्चा करने लायक हो तो चर्चा करनेको कहा । अिसमें ये सूचनायें थी कि पवित्रताका भान रखनेवाली और अहिंसाको चाहनेवाली लड़कीको पुण्य प्रकोप प्रगट करके बदमाशके तमाचा जमा देना चाहिये और जिस तरह खुद जाग्रत होना और असके होश ठिकाने लाना चाहिये, असे शरमाना चाहिये और अगर वह न शरमाये तो मौतसे मिलनेको तैयार रहना चाहिये । तमाचा हिंसा नहीं है, बल्कि असे सावधान करनेवाला होनेके कारण अहिंसामय है । मेरी मुश्किल यह नहीं थी कि जिस तमाचेमें हिंसा है -मैं तो मिन हालातमें तमाचेसे भी सस्त अपायोंको हिंसा नहीं मानता मगर मेरी कठिनाभी यह है कि यह तमाचा किसी परिचित आदमी पर तो असर करेगा, वह शरमाकर पैरों पड़ जायगा। मगर क्या जालिम वसमें आयेगा ? जालिम हाथ पैर बाँध दे और मुंहमें कपड़ा ठूस कर अत्याचार करे तो ? बापूने लिखा " तब तुमने मेरा लेख नहीं समझा । मैंने तो यह सुझाया है कि तमाचा जाग्रत करता है, निर्भयता देता है और सबसे ज्यादा वह मरनेकी शक्ति देता है । जालिम अपने खयालसे अिस किस्मके व्यर्थक विरोधके लिओ तैयार ही नहीं होता। अिसलिले असके हट जानेकी संभावना रहती है। मगर अिसे मैं गौण समझता हूँ । अस स्त्रीमें जो जोश आ जाता है, वह मरनेके लिये काफी है। वह जालिम असके साथ लहे अससे पहले तो वह कभीकी मौतके शरण पहुँच चुकी होगी । कारण वह तो मृतप्राय होकर ही जुझती है, वह प्रहार करनेका खयाल नहीं करती । झुसे तो सिर्फ रटन करना है। यह अपाय सभी वातावरणोंके लिओ सुझाता हूँ, और जो पवित्र हैं और अहिंसाके जरिये ही अपनी रक्षा करना चाहती हैं, अन बहनों के लिखे है। यह लेख आपबीतीके आधार पर लिखा गया है । मैं जब अस सलाखको पकड़े ही रहा तब मैंने मरनेकी तैयार कर ली थी। मारनेवालेको में चोट नहीं पहुँचा सकता था | मगर मेरा हाय वहाँसे छूट जाता तो मैं तड़पड़ाता, शायद तमाचा मारता, शायद दाँतोंसे काटता, मगर मरते दम तक जूझता । जिस तरहसे जूझते रहने पर मी असमें हिंसा न होती क्योंकि मैं असे चोट पहुँचानेमें असमर्थ था और चोट पहुँचानेका अिरादा भी नहीं था। मेरा हेतु सिर्फ मरनेका और असकी गहराीमें अतरें तो मुक्ति पानेका था । अहिंसाको यही परीक्षा है, असका हेतु दुःख पहुँचानेका नहीं होता और परिणाममें भी दुःख नहीं होता।" ३८९ क