प्रार्थना-प्रवचन ४७५ मामूली काम थोड़े ही है। इसलिए आपके राम-भक्त कहना एक बड़ी गलती है। मेरे रामभक्त तो कोई है ही नहीं। लेकिन ऐसा होता है कि लोग रावणका वुत बना लेते हैं और राम उसको परास्त करते हैं। अभी तो राम परास्त करते हैं रावणको, लेकिन हममें कौन रावण होगा और कौन राम बनेगा? अगर हर कोई आदमी राम बन सकता है तो पीछे रावण कौन बनेगा? यह तो कथा है, लेकिन कथामें भी ऐसा मानते हैं कि राम तो ईश्वर है और रावण उसका दुश्मन । इसीलिए तो उसको अशुभ कहा, राक्षस कहा और निशाचर कहा। क्योंकि उसका काम ही यह था कि रामको न मानना और ईश्वरको न भानते हुए ही मर जाना। पीछे भगवानके हाथोंसे ही उसकी मृत्यु हुई। यह तो एक कथानक है। इसका यह मतलब नहीं है कि रावणका बुत वनाते हैं तो वे बदला लेनेके लिए उकसाते हैं। मैं तो उसमेंसे यह सीखता हूं कि वे यह बताते हैं कि आदमी दूसरोंसे बदला न ले। मैं यह न मान लूं कि यहां जो भाई बैठे हैं, वे तो रावण हैं और मैं राम हूं। तब तो मेरे जैसा उद्धत और मूर्ख आदमी और कौन बन सकता । मुझको क्या पता कि मैं राम हूं, कौन जानता है कि मुझमें कितनी दुष्टता भरी है। ईश्वरके दरवारमें मैं महात्मा हूं या दुष्ट हूं, उसको कोई नहीं जानता। मुझको भी पूरा पता नहीं चलेगा कि मुझमें कितनी दुष्टता भरी है या कितनी साधुता है। वह जाननेवाला तो रामजी ही है। वह ऊपर पड़ा है और सवको देखता है। कोई चीज उससे छिपी हुई नहीं है। इन्सान किसीसे बदला ले नहीं सकता। अगर किसीसे बुरा भी हुआ है, तो भी उससे वदला क्या लेना? अगर एक इन्सान सम्पूर्ण है, यद्यपि इन्सान संपूर्ण कभी हो नहीं सकता, क्योंकि संपूर्ण तो केवल ईश्वर ही हो सकता है। फिर भी माना कि एक इन्सान संपूर्ण है और अन्य अपूर्ण हैं, तो क्या वह दूसरोंको सजा दे या उनका संहार करे? यह जो पुतला बनाते हैं विजयादशमीके रोज, उसका मेरी निगाहमें तो यही मतलब है कि वदला लेना इन्तान, मनुष्य या पादमीका काम नहीं है। उसको बदला लेना भी न कहा जाय तो भी जो संहार या हिंसा इत्यादि करनी है, वह ईश्वर ही कर सकता है। तो क्या ईश्वरमें ही
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