अफ समानता सुझाभी : "टॉल्टॉयने अपना कलानिष्ठ जीवन छोड़कर सेवानिष्ठ जीवनकी शुरूआत की और कलाकी पुस्तकोंका लिखना बिलकुल त्याग कर असी घरेलू पुस्तकें और कहानियाँ लिखना शुरू किया, जिनसे आम लोगोंकी अन्नति हो । रस्किनके जीवनका पहला हिस्सा भी कलानिष्ठाका था। अिस कलानिष्ठाके कालमें सुसने Modern Painters (मॉडर्न पेण्टर्स), Stones of Venice (स्टोन्स ऑफ वेनिस), आदि पुस्तकें लिखीं । बादमें असे लगा कि सौन्दर्यकी अपासना चीज तो अच्छी है, । मगर आसपास दुःख, दारिद्य और फूट हो, तो सौन्दर्यका आनन्द कैसे लूटा जा सकता है । अिसलिभे असने अपनी कलम dipped in blood & tears खुन और आँसुओंमें डुबोभी और Unto this Last (अण्ट दिस लास्ट )- 'सर्वोदय' लिखा । जो आलोचना टॉलस्टॉयकी हुी वह रस्किनकी भी हुी ।" बापूने कहा " यह तुलना मेक खास हदके बाद नहीं रहती; क्योंकि टॉल्स्टॉयने तो कला- जीवनकी यानी अपने भूतकालकी निन्दा की, अससे अिनकार किया, जब कि - - दुनियामें मनुष्यमात्रको तीन चीजोंकी और तीन गुणों को आवश्यकता है । जो मिन्हें हासिल करना नहीं जानता, वह जीनेका मन्त्र ही नहीं जानता। और मिसलिये छह चीजें शिक्षाका आधार होनी चाहिये । जिस तरह मनुष्य मात्रको पचपनते फिर भले वह लड़का हो या लड़की जानना हो चाहिये कि साफ हवा, साफ पानी, और साफ मिट्टो किसे काहते हैं, जिन्हें किस तरह रखा जाय और मिनका झुपयोग क्या है । जिसी तरह तीन गुणों में सुसने गुणशता, आशा और प्रेमको गिना है । जिनमें सत्यादि की कद्र नहीं, जो अच्छी चीजको पहचान नहीं सकते, वे अपने घमण्डमें फिरते हैं और आत्मानन्द नहीं पा सकते । मिसी तरह जिनमें आशावाद नहीं यानी जो भीश्वरक न्यायके वारेमें शंका रखते हैं, अनका हृदय कभी प्रफुल्लित नहीं रह सकता । और जिनमें प्रेम नहीं यानी अहिंसा नहीं, जो जीवमात्रको अपने कुटम्वी नहीं मान सकते, वे जीनेका मंत्र कभी नहीं साध सकते। जिस बात पर रस्किनने अपनी चमत्कारी भाषामें बहुत विस्तारसे लिखा है । यह तो फिर किसी वक्त समाजके समझने लायक ढंगसे दे सक्त तो ठीक ही है । आज तो जितनेसे हो सन्तोष कर लेता हूँ । साथ ही मितना और कह दूँ कि जो कुछ. हम अपने देहाती शब्दोंमें विचारते रहे हैं और आचरणमें लानेका प्रयत्न कर रहे है, लगभग वही सब रस्किनने अपनी प्रौढ़ और विकसित भाषामें और अंग्रेज जनता समझ सके जिस ढंगसे पेश किया है । यहाँ मैंने तुलना दो अलग भाषाओंकी नहीं की है, बल्कि दो भाषा-शास्त्रियोंकी की है । रस्किनके भाषा-शास्त्रक शानके साथ मेरे जैसा आदमी मुकावला नहीं कर सकता । मगर जैसा समय जरूर आयेगा जब भाषा मात्रका प्रेम व्यापक होगा; तब भाषाके पोछे धूनी रमानेवाले रस्किन-जैसे शास्त्री निकल आयेंगे; तब वे अतनो हो प्रभावशाली गुजराती लिखेंगे, जितनी प्रभावशालो अंग्रेजी रस्किनने लिखी है । ता. २८-३-३२ यरवदा मन्दिर 1
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