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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/६७

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मॉस्कोके समाजकी आत्मा भी जागी । असके अत्यन्त निकटके मित्रोंने मुझे कहा था कि असका सुन्दर चरित्र असके रात दिन चलनेवाले जप, तप और ध्यान-धारणा वगैरासे ज्यादा तेजस्वी बन गया था । दिनमें अनेक कामोंसे 'निपट कर रातका बड़ा भाग वह ध्यान और भजनमें व्यतीत करती थी । घड़ी दो घड़ी नींद लेती तो वह भी बिना गद्देके तख्ते पर । भोजनमें मांस वगैरा तो असने कितने ही समयसे छोड़ दिये थे । सुसने अपने जीवनमें भक्तियोग और कर्मयोगका अच्छा मेल साधा था । लड़ाीके दौरानमें असने भिस संस्थाकी प्रवृत्ति प्रसंगोचित सेवाकी तरफ मोड़ दी । जब यह मालूम हुआ कि घायलोंके लिओ मिलनेवाले दानमेंसे लोग मपया खा जाते हैं, तो असने आग्रहपूर्वक हरेक दाताको रसीद भेजने की पद्धति डाल दी । यह तो असने अपने जापानकी लड़ाीके समयके अनुभवका झुपयोग १९१४ में पूरी तरह किया । मगर असकी जिन्दगीकी कड़ी से कड़ी परीक्षा तो अभी होनी बाकी थी। हम देख चुके हैं कि वह जर्मन राजघरानेकी, कुमारी थी। अिसलि १९१५में जर्मन विरोधी गुंडोंका ध्यान असकी संस्थाकी तरफ गया । वहाँ रूसके लिझे हर तरहका युद्धकार्य होता था। फिर भी उसकी संस्थाको शत्रु-प्रवृत्तियोंका केन्द्र मान लिया गया । अक बार गुंडोंकी अक भीड़ आश्रमको जलानेके लिअ चढ़ आयी । लेकिन मास्कोके मेयर वहाँ जा पहुंचे और गुंडोंको संस्था जलानेसे रोका । असकी बहन जारकी रानी थी । असे यह हमेशा अच्छी सलाह देती थी। लेकिन वह रासपुटिनके पंजेमें फंसी हुी यो । अिसकी सलाहका जितना चाहिये असने लाभ नहीं झुठाया। बादमें तो दोनों बहनोंका ज्यादा मिलना नहीं होता था । १९१७ में जब विप्लव फूट पड़ा, तब मॉस्कोके गुंडोंको फिर नशा चढ़ आया । तोड़े हुझे जेलवानेसे छूटे हुओ कैदियों और दूसरे गुंडोंने अिसे जर्मन जामूसके तौर पर पकड़नेके लिञ अिसकी संस्थाको घेर लिया । यह भली स्त्री बाहर आकर सुस भीड़के सामने खड़ी हो गयी और अससे कहने लगी. "तुम्हें क्या चाहिये ? जो चाहिये मो अन्दर आकर ले जाओ। यहाँ कोभी इथियार, गोलाबाद या जासूम छिराये हुझे नहीं हैं। हों तो हूँश लो और खुशीस ले जाओ । मगर ग्सबरदार, पाँच आदमियोंसे ज्यादा अन्दर न जायें ।" भीने जवायने नारा लगाया " हमें कुछ नहीं सुनना है हमें तो तुम्हें पकाना है । चलो हमारे साथ ।" अलिजायेपन शान्त चित्तसं अत्तर दिया .-"मैं आनेको नैयार है । मगर भिम संख्याकी में कुलमाता है। भिनलिने मुले सारा कामकाज बाकायदा मार्ट कर देना चाहिये ।" १