" करें तो अच्छा है । विद्वत्ता और साधुताका मेल आजकल कम पाया जाता है । अिसलिभे असी प्रवृत्तियोंके बारेमें मनमें अदासीनता तो जरूर रहती है । " गीता-रामायणके पुरे पारायणके बारेमें अपरके जैसी या अससे जरा ज्यादा अदासीनता रहती है । अर्थ समझे बिना या अर्थ समझते हुझे भी केवल अचारणके लिो-~~ यह मानकर कि मानो अचारणमें ही पुण्य हो- या आडम्बर या कीर्तिको ग्यातिर जो लोग पाठ करते हैं, अनके पारायणका मेरी नजरमें कोओ मूल्य नहीं । अितना ही नहीं, बल्कि मैं यह मानता हूँ कि जिससे नुकसान होता है । अगर अपरके दोपोंको दूर रखनेके सुपाय महाराज खोज सके हों और असके अनुमार पारायण करा रहे हों, तो जिसमें शक नहीं कि अससे भला होगा। "मैं कैदी हूँ, अिन बानको ध्यान में रखकर मेरे अने पत्रोंका सार्वजनिक उपयोग नहीं होना चाहिये । अिमलिमे अिस बारेमें सावधानी रखियेगा । दूमरा पत्र हनुमानप्रसाद पोद्दारको हिन्दीमें लिखाया । जिसमें उनके पूछे हुझे कितने ही प्रश्नों के अत्तर : १-२. अीश्वरको मानना चाहिये, क्योंकि हम अपने को मानते हैं। जीवकी हस्ती है तो जीवमात्रका समुदाय औश्वर है, और यही मेरी दृष्टिमें प्रबल प्रमाण है। ३. भीश्वरको नहीं माननेसे सबसे बड़ी हानि वही है, जो हानि अपनेको नहीं माननेसे हो सकती है। अर्थात श्रीश्वरको न मानना आत्महत्या-सा है । बात यह है कि जीश्वरको मानना अक वस्तु है और मीश्वरको हृदयगत करना और असके अनुकुल आचार ग्वना यह दूसरी वस्तु है । सचमुच अिस जगतमें नास्तिक कोमी है ही नहीं। नास्तिकता आडम्पर मात्र है । ४. ीश्वरका साक्षात्कार रागद्वेषादिसे सर्वथा मुक्त होनेसे ही हो सकता है । अन्यथा कभी नहीं । जो मनुष्य अमा कहता है कि मुझे साक्षात्कार हुआ है, असे साक्षात्कार नहीं हुआ औसा मेरा मत है । यह वस्तु अनुभवगम्य है, परन्तु अनिर्वचनीय है । अिसमें मुझे कोसी सन्देह नहीं है । ५. ीश्वरमें विश्वास रखनेसे ही में जिन्दा रह सकता हूँ। श्रीश्वरकी मेरी व्याख्या याद रखना चाहिये । मेरे समक्ष सत्यसे भिन्न असा कोजी भीश्वर नहीं है । सत्यं ही अीश्वर है । " सत्य ही भीश्वर है" अिस चीजका और “ सब कुछ ीश्वर श्रद्धासे करना चाहिये, सब ीदवरके आधार पर और असकी प्रेरणासे करना चाहिये", अिन दोनोंका मेल कैसे बैठे, यह मैंने शामको घूमते वक्त पूछा । आज ही 'सत्याग्रह आश्रमके मितिहास में ये वाक्य लिखाये थे ." असी श्रद्धा ८१
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