पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/८९

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रखनेवाला ीश्वरके भेजे हुझे पैसे से अीश्वरके भेजे हुझे काम करे । औश्वर हमें यह नहीं देखने या जानने देता कि वह खुद कुछ करता है। वह मनुष्योंको प्रेरित करके अनके जरिये अपना काम निकालता है }" असे वाक्योंमें 'मीश्वर' शब्दके बजाय पर्याय शब्द 'सत्य' लिखें तो काम चलेगा? सत्य अमुक बात करता है, मनुष्योंको प्रेरित करता है, प्रवृत्ति चलाता है, भेजता है, यह किस तरह कहा जा सकता है ? बापू कहने लगे जरूर कहा जा सकता है । सत्यका संकुचित नहीं, विशाल अर्थ यह है - सत्य यानी होना, जो वस्तु शाश्वत है वह । अिस सत्ताके बल पर सब कुछ होता है, यही ीश्वर- श्रद्धा है। श्रीश्वर शब्द प्रचलित है, अिसलिमे हमने असे स्वीकार कर लिया है। नहीं तो ीश्वर शब्द 'मीर' यानी 'राज चलाना' धातुसे बना है । अिसलिओ मेरी दृष्टिमें तो यह सत्यसे घटिया शब्द है। जो अचल सत्य है असके बल पर जरूर सारी प्रवृत्तियाँ चलती हैं और मनुष्योंको प्रेरणा मिलती है । मुन्शीको भी शंका थी । असने मुझे पूछा था : ‘ीश्वरप्रणिधानात् वा' में अीश्वरके क्या मानी ? मैंने असे लिखा : श्रीवर यानी सत्य । अिस सूत्र पर टीका लिखने- वालोंमेंसे कुछने कहा है कि ये शब्द सूत्र में निरर्थक हैं और पतंजलिने सिर्फ़ प्रचलित विश्वासको आघात न पहुँचानेके लिओ ही लिखे हैं। पर मैं हरगिज असा नहीं मानता। पतंजलि जैसा समर्थ सूत्रकार अक भी शब्द व्यर्थ अिस्तेमाल नहीं कर सकता । मैं नहीं कह सकता कि असने भीश्वरका वही अर्थ किया है या नहीं जो मैं करता हूँ । मगर मैं जो अर्थ करता हूँ वह लिया जाय, तो ये शब्द आवश्यक हैं।" मीराबहनका खत आया, २४ पन्नेका । अिसकी अक अक लकीरमें निर्मल भक्ति भरी है । बापूके पास रह कर सेवा किये बिना अन्हें चैन नहीं पड़ता और वापू कहते हैं कि तुझे मोह छोड़ना चाहिये । यह मोह न छोड़ेगी तो जिस दिन मैं नहीं रहूँगा, अस दिन तू पंगु बन जायगी। यह झगड़ा वे आयीं तबसे बापूके और अनके बीच चल रहा है। आज अपने पत्रमें अन्होंने अपना दिल फिर अड़ेलकर रख दिया है । अनकी निर्मलता अद्भुत "Bapu, I am never without that thought in my mind, as to how best to serve you. I think and pray and reason with myself and it always ends the same way in my heart of hearts. When you are taken from us, as in jail, an instinct impels me to work with all my strength at outward service of your cause. I feel no doubt and no difficulty. When you are with us, an equally strong instinct impels me to retire into silent personal service-trying to do anything else, ८२