पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१३९

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  • - भारतीय युद्ध का समय *

है; परन्तु हम पहलेकी तरह चैत्र-वैशाख- सिद्ध होता है कि कृत्तिकाके ठीक पूर्व में को ही वसन्त ऋतु कहते हैं और पुस्तकों- उदय होनेके सम्बन्धकी, सन् ईसवीके में भी लिखते हैं । धार्मिक बातोंमें भी ३००० वर्षके पहलेकी घटनाको वैदिक इसी प्रकार पिछले नियम स्थिर रहते हैं ऋषियोंने उस समय देखा था । इससे और बदली हुई नई स्थिति पर दुर्लक्ष्य | मालूम होता है कि उस समय आर्योकी. कर दिया जाता है। यह आक्षेप पहले | उन्नति बहुत हो चुकी थी। उन्होंने चारों तो सम्भवनीय और ठोक दिखलाई पड़ता दिशाओंके बिन्दुओका स्थान निश्चित कर है, परन्तु यहाँ वह प्रत्युक्त नहीं हो लिया था और वे ताराओंके उदय-अस्तको सकता; क्योंकि कृत्तिकाके ठीक पूर्वमें दृक्-प्रत्ययसे देखा करते थे। परन्तु इसमें उदय होनेकी बात स्वाभाविक रीतिसे आश्चर्य करने योग्य कोई बात नहीं बतलाई गई है। यह बात रोज़के पाठकी है। सब लोग जानते हैं कि ईजिप्ट और अथवा धार्मिक विधिकी नहीं हो गई। बैबिलोनके प्राचीन लोग बहुत उन्नत थे। दूसरी बात यह है कि जब प्रत्यक्ष स्थिति उन्होंने सन् ईसवीके लगभग ४००० वर्षों- और पिछले समयकी स्थितिमें अधिक के पहले दिशाओंके बिन्दु स्थिर कर लिये अंतर पड़ता है, तो नित्यका पाठ भी थे। ईजिप्टमें पिरामिडोके भुज और बैबि- कई बार बदल जाता है। चैत्र-वैशाखको लोनमें “जिगुरान" अथवा मन्दिरोंके वसन्त ऋतु कहनेका पाठ, ऋतुके एक कोण ठीक चारों दिशाओंके बिन्दुओंके महीने पीछे हट जानेके कारण, बदल अनुकूल हैं । ऐसी दशामें, यह स्वाभाविक भी दिया गया है। अर्थात् पहले जब १५ है कि हिन्दुस्थानमें सन् ईसवीके ३००० दिनोंका अन्तर ध्यानमें आया, तब महीने वर्ष पहले आर्य लोगोंको दिशाओंका मान पौर्णिमासे गिने जाने लगे और १५ था । हिन्दुस्थानमें पार्योंने पिरामिड नहीं दिन पीछे हटा दिये गये । जब इससे भी बनाये; तथापि वे यज्ञयाग किया करते अधिक अन्तर देख पड़ा, तब ज्योति- थे। यज्ञोंमें प्राची-दिशाका साधन आवश्यक षियोंने “मीनमेषयोर्वसन्तः" का पाठ है और वर्षसत्र करते समय विषुव दिवस शुरू कर दिया । पहले वैदिक कालमें का बड़ा महत्त्व माना गया है । उस दिन कृत्तिका-रोहिणी ऐसा नक्षत्र-पाठ प्रच- सूर्य ठीक पूर्वमें उदय होता है, अतएव लित था: वह अब अश्विनी-भरणी हो प्राची-साधन करना बहुत कठिन नहीं था। गया है। सारांश, हमारी राय है कि जो पार्योंकी यह शानोन्नति आगे भी स्थिर घटना दो हज़ार वर्षोंसे बन्द हो गई थी रही और यज्ञयागादि क्रिया जारी थी। और बहुत बदल भी गई थी, वह शत- यदि शतपथ-ब्राह्मणको सन् ईसवीके ८०० पथमें इस तरहसे कभी लिखी नहीं जा वर्षके पहलेका मान ले और कहे कि सकती, कि मानो वह आजकी है। यह बीचके २००० वर्षतक तारागणका प्रत्यक्ष बात स्पष्ट है कि वर्तमान समयका कोई देखा जाना बन्द नहीं हुआ था और कवि वैशाखका वर्णन वसन्तके समान कृत्तिकाका उदय पूर्वमें नहीं होता था, नहीं करेगा-प्रीष्मके ही समान करेगा। तो उसमें यह वाक्य कभी नहीं लिखा जा - इस प्रकार स्मरण-सम्बन्धी कल्पनाके सकता था कि कृत्तिकाका उदय ठीक पूर्व द्वारा, शतपथ-ब्राह्मणके वाक्यका खण्डम में होता है। यदि सन् ईसवीके ३००० नहीं किया जा सकता । इस पाक्यो वर्ष पहलेके जमाने में पार्योकी प्रगति