पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२७९

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  • समाजिक परिस्थिति-श्रन्न ।*

२५३ सिवा समस्त जलचर चतुष्पद वर्ण्य हैं। कारणके न तो खाना चाहिए और न पक्षियोंमें इन्हें वयं बताया है- पीना चाहिए। इससे सिद्ध है कि किसी भासाहंसाः सुपर्णाश्च चक्रवाकःप्लवा बकाः। शास्त्रोक्त अवसर पर ही-जैसे यज्ञ. या काको मद्श्व गृध्रश्च श्येनोलुकास्तथैवच ॥ अन्य देवता-सम्बन्धी अवसर, अथवा ____भास, हंस, गरुड़, चक्रवाक, कारंडव, श्राद्धके अवसर पर-शास्त्रोक्त कारणसे बक, काक, गृध्र, श्येन और उलक पक्षी ही मांसान खानेकी ब्राह्मणों को प्राशा थी: वर्जित हैं। इसी तरह- हर समयके लिये नहीं। परन्तु श्राद्धके क्रव्यादा दंष्ट्रिणः सर्वे चतुष्पात् पक्षिणश्च ये। अवसर पर तो मांस खानेकी आशा थी। जिनके दंष्टा हैं ऐसे सभी मांस-भक्षक ! अर्थात् 'हिसा होगी ही। तब अहिंसा- चौपाये जानवर और वे पक्षी जिनके तत्त्वको माननेवाले मनुष्यके आगे यह नीचे-ऊपर डाढ़े है, तथा ऐसे सभी प्राणी प्रश्न खड़ा होगा ही। इसके सिवा क्षत्रिय वयं हैं जिनके चार दंष्ट्राएँ हैं। इससे लोग सिर्फ यज्ञ अथवा श्राद्धमें ही प्रकट होता है कि महाभारतके समय मांस खाकर थोड़े ही श्रघा जायँगे: वे घ्राह्मणों के लिये कौन कौन मांस वयं थे। शिकार करके भी मांस खायँगे। तब, यद्यपि ऐसी स्थिति है तथापि उनकी इस प्रवृनिका और अहिंसा-धर्म- महाभारतकं समय मांस सम्बन्धमे का मिलान किस तरह हो? यह महत्त्वका समस्त लोगोंकी प्रवृत्ति--विशेषतः ब्राह्मणों- प्रश्न है । महाभारतमें एक स्थान पर की-मांसाहारको वर्जित करनेकी श्रार (अनु० ११५ व अध्यायम) इसका विचार थी। भिन्न भिन्न गतियोंसे यह बात सिद्ध भी किया गया है। १४४वें अध्यायमें होती है। साधारण तौर पर यह तय कहा है कि अहिंसा चारों प्रकारसे वर्जित निश्चित था कि प्राध्यामिक विचार करन- करनी चाहिए: अर्थात मन, वाणी, कर्म वाले मनुप्यके लिये मांसाहार वय॑ है। और भक्षण द्वाग। "तपश्चर्या करनेवाले वेदान्ती. योगी. ज्ञानी अथवा तपश्चर्या लोग मांस-भक्षणसे अलिप्त रहते हैं। करनेवाले पुरुषको मांसाहारसे नुकसान मांस खानेवाला मनुष्य पापी है, उसकी होता है। अपने कामांमें उन्हें सिद्धि म्वर्ग-प्राप्ति कभी न होगी। उदार पुरुषो- प्राप्त नहीं होती। भारती श्राोंने यह : को, अपने प्राण देकर, दृमगेंके मांसकी सिद्धान्त स्थिर कर दिया था। साधारण ' रक्षा करनी चाहिए।" इस प्रकार अहिंसा- रीनिसे मनुने जो तत्त्व बतलाया है वह धर्मका वर्णन हो चुकने पर युधिष्ठिरन सब लोगोंकी समझमें श्रा गया था। वह प्रश्न किया-"इधर श्राप अहिंसा-धर्मको तत्व यह है- श्रेष्ठ बतलाते हैं और उधर श्राद्धमें पितर न मांस-भक्षणे दोषो न मयं न च मैथुने। मांसाशनकी इच्छा करते है । तब, हिंसाके प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥ बिना मांस मिलना सम्भव नहीं। फिर ___यह नियम था कि गृहस्थ ब्राह्मणतक- ' मांस-वर्जनरूपी यह विरोध कैसे टलेगा। को वृथा मांस-भक्षण न करना चाहिये। जो म्वयं हिंसा करके मांसका सेवन अर्थात् बिना कुछ न कुछ कारणके मांस- करता है, उसे कौनसा पाप लगता है, भक्षण करनेका निषेध था । गृहस्थाश्रमी और जो दुसरेसे हनन करवाकर उसका ब्राह्मणको श्रौटाया हुआ दूध, स्बीर, संवन करता है, वह किस पापका भागी खिचड़ी, मांस, बड़ा आदि विना शास्त्रोक्त होना है, और जो मोल लेकर मांस खाता