सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५४
महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा

- है उसे कौन पाप लगता है ?" भीष्मने भक्षण न करना चाहिए । प्राचीन कालके उत्तर दिया-"जिसे आयु, बुद्धि, विवेक, यज्ञ करनेवालोंने धान्य (अन्न) का पशु बल और स्मृतिकी इच्छा है, उसे हिंसा बनाकर यक्ष-पुरुषकी आराधना की। वसु घl करनी चाहिए। जो मनुष्य पराये राजाने, भक्षणीय न होने पर भी, मांस- मांससे अपने मांसकी वृद्धि करता है को भक्षणीय बतलाया, इस कारण पृथ्वी- उसका नाश अवश्यम्भावी है। मांस न पर उसका पतन हुआ । अगस्त्य ऋषिने खानेवाला मनुष्य नित्य दान करता है। प्रजाके हितके लिए अपनी तपश्चर्या के मरनेका डर विद्वान् मनुष्यके लिये भी प्रभावसे जङ्गली मृगोको, समस्त देव- रहता है। फिर जो पापी पुरुष, मांस ताओंके उद्देशसे, प्रोक्षण करके पवित्र कर खानेके लिये, प्राणियोंकी हत्या करते हैं, दिया है। अतएव देव-कार्य अथवा उनकी इस करनीके सम्बन्ध मरनेवाले पितृ-कार्यमें यदि मृग-मांस अर्पण किया प्राणीका कैसा मालूम होता होगा ? मांस जाय तो वह कर्महीन नहीं होता । है खानेवाले पुरुषको जो जन्म प्राप्त होते हैं, राजा, मांस न खानेमें सारे सुख हैं। जो उनमेंसे हर एकमें उसकी खुब दुर्गति पुरुष कार्तिक महीनके शुक्ल पक्षमें मधु होती है-उसे तकलीफें भांगनी पड़ती मांस वर्ण्य करता है, उसे बहुत पुण्य हैं। जीनेकी इच्छा करनेवाले प्राणीकी होता है। बरसातके चार महीनों में जो जो मनुष्य हिंसा करता या करवाता है। मांस नहीं खाता उसको कीर्ति, प्रायु उसे प्रत्यक्ष हत्या करनेका पातक लगता | और बल प्राप्त होता है। कमसे कम इन है। मोल मांस लेनेवाला द्रव्य द्वारा हिंसा महीनोंमेंस जो एक महीन भग्तक मांस करता है और मांस खानेवाला, उसके छोड़ रहेगा उसे कभी बीमारी न होगी। उपयोग द्वाग हिंसा करता है। ये सब अनेक प्रसिद्ध राजाओंने कार्तिक महीने प्रत्यक्ष वध करनेवालेकी ही तरह पापी भर या शुक्ल पक्षमें मांसको वर्जित रखा। हैं। किन्तु साधारण जगत्के लिये जो लोग जन्मसे ही मधु-मांस अथवा ऋषियोंने यह नियम कर दिया है कि मद्यको त्यागे रहते हैं उन्हें मुनि ही कहते यहमें मारे हुए पशुको छोड़कर अन्य हैं । इस प्रकार ऋषियोंने मांस भक्षण- पशुका मांस न खाना चाहिए। यज्ञकेसिवा की प्रवृत्ति और निवृत्तिके नियम बना और कभी पशुहत्या न करनी चाहिए। जो दिये हैं।" करेगा उसे निःसन्देह नरक-प्राप्ति होगी। इस वर्णनसं इस बातका दिग्दर्शन परन्तु मोक्ष मार्गबालोंके लिए यह नियम होता है कि क्षत्रियों और ब्राह्मणोंकी भी उपयुक्त नहीं। यज्ञ अथवा श्रार आदि- पुरानी प्रवृत्ति और दयायुक्त अहिंसा- में ब्राह्मणोंकी तृप्तिके लिए मारे हुए पशुका तत्त्वका झगड़ा भारती समयमें किस मांस खाने में थोड़ा दोष होता है । मांस प्रकार था । क्षत्रियोंको जो प्रादते सैंकड़ों खानेकी ग़रज़से यदि कोई यशका ढोंग वर्षोंसे-पुश्त दरपुश्तसे-पड़ गई थी, रचे और उसमें मांस खानेके लिए उद्यत उनका छूट जाना असम्भव था: अथवा हो, तो वह काम निन्द्य ही होगा। प्रकृति- ब्राह्मणोंकी वेदाज्ञाके अनुरूप प्रचलित धर्म माननेवालोको पितृकर्ममें और यक्ष-यक्ष-श्राद्ध आदि विधियों में फर्क पड़ना भी याग, वैदिक मन्त्रोंसे संस्कृत किया हुश्रा मुश्किल था। अतएव कह सकते है कि अन्न खाना चाहिए, उन्हें वृथा मांस-- यह एक प्रकारका परस्परका झगड़ा,