पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५६
महाभारतमीमांसा

२५६

  • महाभारतमीमांसा *

(द्रो० अ० ११२) । यदुके वंश मराठे हैं। नीय थी कि मद्यप्राशनसे ब्राह्मणका वे भी युद्ध के समय स्वयं सुरा पीकर और ग्राह्मणत्व ही नष्ट हो जानेका नियम हो हाथियोको पिलाकर लड़ने जाते थे: फिर गया था। सुरापान करनेसे ब्राह्मणोंके कभी पैर पीछे न रखते थे। ऐसा वर्णन लिये ब्रह्महत्याके समान ही पानित्य होने- चीनी परिव्राजक हुएनसांगने किया। का निश्चय हो गया। शान्ति पर्वके १४० है। भारतके अनेक वर्णनोंसे स्पष्ट देख ! अध्यायमें विश्वामित्र और चाण्डालकी पड़ता है कि भारती-युद्ध के समय क्षत्रिय एक मनोरञ्जक कथा है । उस कथासे उक्त लोग सुरा पीनेवाले थे और उनमेंसे कुछ। बात भली भाँति प्रमाणित होती है। एक नो ज़बर्दस्त पियक्कड़ थे । उस समय, बार बारह वर्षतक पानी न बरसनेसे ब्राह्मणोंमें भी सुग-मेवी होंगे। शुक्रकी बड़ा भयङ्कर अकाल पड़ा। तब, विश्वा- कथा महाभारतमें आई ही है। शुक्राचार्य मित्र भूखसे व्याकुल होकर इधर उधर शराब पीते थे और उससे अत्यन्त हानि श्राहारकी खोजमैं भटकने लगे । उस होनेके कारण उन्होंने शराब पीना छोड़ समय उन्हें एक बागडालका घर देख पड़ा दिया था। कच-देवयानीके श्राग्यानमे भी और उसमें देख पडी एक मरे हुए कुत्त- ऐसी ही कथा है। परन्तु ब्राह्मणों से इस ' की टॉग । लुक छिपकर विश्वामित्र घरमै व्यसन अथवा ग्वाजको शुक्राचार्यने बहुत घुसकर वह टाँग चुराकर ले जाने लगे। प्राचीन कालमें बन्द कर दिया होगा। उस समय चागडालने उनको रोका । भारती-युद्ध के समय जिस तरह क्षत्रिय तब, चागडाल और विश्वामित्रके बीच सुग पीते थे, उसी तरह ब्राह्मण भी पीते थे ' इस विषय पर बड़ा मज़ेदार सम्बाद हुआ या नहीं-यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा कि यह जो चौर-कार्य किया गया सो सकता । फिर भी ब्राह्मण-काल और ठीक है या नहीं । उस सम्बादमें विश्वा- उपनिषद्-कालमें शुक्राचार्यके बनाये हुए मित्रने सबके अन्त में चागडालको यह नियमका पालन पेसी सम्तीसे किया जाता कहकर चुप कर दिया कि भाई ! मैं धर्म- था कि मुगपानकी गिनती पञ्चमहा- को खूब समझता वृझता है। चोरी करना पातकोंमें थी। धर्मशास्त्रमें इस प्रकारका या कुत्सं का मांस खाना पातक है: किन्तु बन्धन कर दिया गया था। यह निषेध इसके लिये प्रायश्चित्त है। 'पतित' शब्द सभी प्राोंके लिये था; अर्थात् ब्राह्मण, केवल सुरापानके सम्बन्धम धर्मशास्त्रमें क्षत्रिय और वैश्य तीनोंके लिये एकसा कथित है। 'नवातिपापं भक्षमाणस्य दृष्टं था । परन्तु यह नियम ब्राह्मणोंके सुगं तु पीत्वा पतनीतिशब्दः। इस प्रकार लिए विशेषताके साथ उपयुक्त माना सुरापानका पातक अत्यन्त भयङ्कर माना गया । ये पञ्चमहापातक उपनिषदोंमें भी जाता था और इससे जान पड़ता है कि कथित हैं। इससे प्रकट है कि सुरापानका महाभारतके समय भी उस पातकके लिये दोष बहुत प्राचीन कालसे माना गया है। कुछ भी प्रायश्चित्त न था, जिससे कि भारती-युद्धके समय भी इसे ब्राह्मणोंने पातकी शुद्ध हो सकता। जिस ब्राह्मण- माम्य कर लिया होगा: और यदि ऐसा जातिका ब्राह्मण्य मद्यकी एक बूंदसे भी न भी हो तो भी भारती कालमें यह बन्धन नष्ट हो जाना लोग मानते थे, उस ब्राह्मण- पक्के तौर पर कायम होकर महाभारतके जातिके सम्बन्धमे लोगोंमें पूज्य बुद्धि समय ब्राह्मलों के लिये सुरा इतनी वर्ज- बढ़े तो इसमें श्राश्चर्य नहीं । 'यस्य काय-